ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
लेकिन तथाकथित धार्मिक लोगों ने तथाकथित झूठे समाज ने तथाकथित झूठे परिवार ने
यही समझाने को कोशिश की है कि सेक्स, काम, यौन अपवित्र हैं, घृणित है। नितांत
पागलपन की बातें है। अगर यौन घृणित और अपवित्र है, तो सारा जीवन अपवित्र और
घृणित हो गया। अगर सेक्स पाप है तो पूरा जीवन पाप हो गया पूरा जीवन निंदित
कंडेम्ह हो गया। अगर जीवन ही पूरा निंदित हो जाएगा तो कैसे प्रसन्न लोग
उत्पन्न होंगे, कैसे सच्चे लोग उपलब्ध होंगे? जब जीवन ही पूरा का पूरा पाप
है, तो सारी रात अंधेरी हो गयी है। अब इसमें प्रकाश की किरण कहीं से लानी
पड़ेगी।
मैं आपको बस एक ही बात कहना चाहता हूं कि एक नयी मनुष्यता के जन्म के लिए
सेक्स की पवित्रता सेक्स की धार्मिकता स्वीकार करनी अत्यत आवश्यक है; क्योंकि
जीवन उससे जन्मता है। परमात्मा उसी कृत्य से जीवन को जन्माता है।
परमात्मा ने जिसको जीवन की शुरूआत बनाया है, वह पाप नहीं हो सकता है, लेकिन
आदमी ने उसे पाप कर दिया है!
जो चीज प्रेम से रहित है, वह पाप हो जाती है; जो चीज प्रेम से शून्य हो जाती
है, वह अपवित्र हो जाती है। आदमी की जिंदगी में प्रेम नहीं रहा, इसलिए केवल
कामुकता सेक्यूअलटि रह गयी है, सिर्फ यौन रह गया है। वह यौन पाप हो गया है।
वह यौन का पाप नहीं है, वह हमारे प्रेम के अभाव का पाप है और उस पाप से सारा
जीवन शुरू होतो है। फिर ये बच्चे पैदा होते हैं फिर ये बच्चे जन्मते हैं।
स्मरण रहे, जो पत्नी अपने पति को प्रेम करती है, उसके लिए पति परमात्मा हो
जाता है। शास्त्रों के समझाने से नहीं होती यह बात। जो पति अपनी पत्नी से
प्रेम करता है, उसके लिए पत्नी भी परमात्मा हो जाती है; क्योंकि प्रेम किसी
को भी परमात्मा बना देता है। जिसकी तरफ उसकी आंखें प्रेम से उठती हैं वही
परमात्मा हो जाता है। परमात्मा का कोई और अर्थ नहीं है।
प्रेम की आंख सारे जगत को धीरे-धीरे परमात्ममय देखने लगती है।
लेकिन जो एक को ही प्रेम से भरकर नहीं देख पाता और सारे जगत को ब्रह्ममय
देखने की बातें करता है, उसकी वे बातें झूठी हैं, उन बातों का कोई आधार और
अर्थ नहीं है।
जिसने कभी एक को प्रेम नहीं किया उसके जीवन में परमात्मा की कोर्ड शुरुआत ही
नहीं हो सकती, क्योंकि प्रेम के ही क्षण में पहली दफा कोई व्यक्ति परमात्मा
हो जाता है। वह पहली झलक है प्रभु की। फिर उसी झलक को आदमो बढ़ाता है और एक
दिन वही झलक पूरी हो जाती है। सारा जगत उसी रूप में रूपांतरित हो जाता है।
लेकिन जिसने पानी की कभी बूंद नहीं देखी, वह कहता है मुझे सागर चाहिए, वह
कहता है पानी की बूंद से मुझे कोई मतलब नहीं। पानी की बूंद का मैं क्या
करूंगा? मुझे तो सागर चाहिए। उससे हम कहेंगे, 'तूने पानी की बूंद भी नहीं
देखी, पानी की बूंद भी नहीं पा सका और सागर पाने चल पड़ा है, तो तू पागल है।'
क्योंकि सागर क्या है? पानी की अनंत बूदों का जोड़ है।
परमात्मा क्या है? प्रेम की अनंत बूंदों का जोड़ है।
तो प्रेम की अगर एक बूंद निंदित है तो पूरा परमात्मा निंदित हो गया। फिर
हमारे झूठे परमात्मा खड़े होंगे, मूर्तियां खड़ी होंगी, पूजा-पाठ होंगे, सब
बकवास होगी; लेकिन हमारे प्राणों का कोई अंतर-संबंध उससे नहीं हो सकता। और यह
भी ध्यान में रख लेना जरूरी है कि स्त्री अपने पति को प्रेम करती है,
जीवन-साथी को प्रेम करती है, तभी प्रेम के कारण, पूर्ण प्रेम के कारण ही वह
ठीक अर्थों में मां बन पाती है। बच्चे पैदा कर लेने मात्र से कोई मां नहीं बन
जाती। मां तो कोई स्त्री तभी बनती है और पिता कोई पुरुष तभी बनता है; जब कि
उन्होंने एक-दूसरे को प्रेम किया हो।
जब पत्नी अपने पति को प्रेम करती है, अपने जीवन-साथी को प्रेम करती है तो
बच्चे उसे अपने पति का पुनर्जन्म मालूम पड़ते हैं। वह फिर वही शक्ल है, फिर
वही रूप है, फिर वही निर्दोष आंखें हैं; जो उसके पति में छिपी थी फिर प्रकट
हुई हैं। उसने अगर अपने पति को प्रेम किया है तो वह अपने बच्चे को प्रेम करती
है। बच्चे को किया गया प्रेम पति को किए गए प्रेम की प्रतिध्वनि है। नहीं तो
कोई बच्चे को प्रेम नहीं कर सकता है।
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