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संभोग से समाधि की ओर...
आधुनिक युग के मनसविद यह कहते हैं कि करीब-करीब चार आदमियों मे दो आदमी
एबनार्मल हो गए हैं। चार आदमियों में तीन आदमी रुग्ण हो गए हैं,
स्वस्थ नहीं हैं। जिस समाज में चार आदमियों में तीन आदमी मानसिक रूप से रुग्ण
हो जाते हों, उस समाज के आधारों को, उसकी बुनियादों को फिर से सोच लेना जरूरी
है; नहीं तो कल चार आदमी भी रुग्ण होंगे और फिर सोचनेवाले भी शेष नहीं रह
जाएंगे। फिर बहुत मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन होता ऐसा है कि जब एक ही बीमारी से सारे लोग ग्रसित हो जाते हैं, तो उस
बीमारी का पता नहीं चलता। हम सब एक जैसे रुग्ण, बीमार, परेशान हैं; तो हमें
पता बिल्कुल नहीं चलता है। सभी ऐसे हैं इसीलिए स्वस्थ मालूम पड़ते हैं। जब सभी
ऐसे हैं, तो ठीक है। दुनिया चलती है, यही जीवन है। जब ऐसी पीड़ा दिखायी देती
है तो हम त्रदुषि-मुनियों के वचन दोहराते हैं कि वह तो ऋषि-मुनियों ने पहले
ही कह दिया है कि जीवन दुःख है।
यह जीवन दुःख नहीं है, यह दुःख हम बनाए हुए हैं। वह तो पहले ही ऋषि-मुनियों
ने कह दिया है कि जीवन तो असार है, इससे छुटकारा पाना चाहिए। जीवन असार नहीं
है, यह असार हमने बनाया हुआ है।
जीवन से छुटकारा पाने की सब बात दो कौड़ी की हैं। क्योंकि जो आदमी जोवन से
छुटकारा पाने की कोशिश करता है, वह प्रभु को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता है।
क्योंकि जीवन प्रभु है, जीवन परमात्मा है। जीवन में परमात्मा ही तो प्रकट हो
रहा है। उससे जो दूर भागेगा, वह परमात्मा से ही दूर चला जाएगा।
जब एक-सी बीमारी पकड़ती है, तो किसी को पता नहीं चलता है। पूरी आदमियत जड़ से
रुग्ण है, इसलिए पता नहीं चलता, तो दूसरी तरकीबे खोजते हैं इलाज की। मूलकारण,
कैजुअलिटी जो है, बुनियादी कारण जो है, उसको सोचते नहीं ऊपरी इलाज सोचते हैं।
ऊपरी इलाज भी क्या सोचते हैं? एक आदमी शराब पीने लगता है जीवन से घबराकर। एक
आदमी जाकर नृत्य देखने लगता है, वेश्या के घर बैठ जाता है जीवन से घबराकर।
दूसरा आदमी सिनेमा में बैठ जाता है। तीसरा आदमी चुनाव लड़ने लगता है, ताकि भूल
जाए सबको। चौथा आदमी मंदिर में जाकर भजन-कीर्तन करने लगता है। यह भजन-कीर्तन
करनेवाला भी खुद के जीवन को भूलने की कोशिश कर रहा है। यह कोई परमात्मा को
पाने का रास्ता नहीं है।
परमात्मा तो जीवन में प्रवेश से उपलब्ध होता है जीवन से भागने से नहीं। ये सब
पलायन, एस्केप हैं। एक आदमी मंदिर में भजन-कीर्तन कर रहा है हिल-डुल रहा है।
हम कहते हैं कि भक्तजी बहुत आनंदित हो रहा है! भक्तजी आनंदित नहीं हो रहे है
भक्तजी किसी दुःख से भले हुए हैं वहा भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। शराब का ही
यह दूसरा रूप है। यह आध्यात्मिक नशा, स्प्रीचुअल इंटाक्सीकेशन यह आध्यात्म के
नाम से नयी शराबें हैं, जो सारी दुनिया में चलती हैं। इन लोगों ने भाग-भाग कर
जिंदगी को बदला नहीं आज तक। जिंदगी वही की वही दुःख से भरी हुई है। और जब भी
कोई दुःखी हो जाता है, वह भी उनके पीछे चला जाता है कि हमको भी गुरुमंत्र दे
दें, हमारा भी कान फूंक दें कि हम भी इसी तरह सुखी हो जाएं, जैसे आप हो गए
हैं! लेकिन यह जिदगी क्यों दुःख पैदा कर रही है, इसको देख के लिए, इसके
विज्ञान को खोजने के लिए कोई भी जाता नहीं है!
मेरी दृष्टि में यह है कि जहां जीवन की शुरुआत होती है, वही कुछ गड़बड़ हो गयी
है। वह गड़बड़ यह हो गयी है कि हमने मनुष्य-जाति पर प्रेम की जगह विवाह को थोप
दिया है। यदि विवाह होगा तो ये सारे रूप पैदा होंगें। और जब दो व्यक्ति
एक-दूसरे से बंध जाते है और उनके जीवन मे कोई शांति और तृप्ति नहीं मिलती, तो
वे दोनो एक-दूसरे पर क्रुद्ध हो जाते हैं कि तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल
पा रही है। वे कहते हैं, 'तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल पा रही है।' वे
एक-दूसरे को सताना शुरू करते हैं परेशान करना शुरू करते हैं और इसी हैरानी,
इसी परेशानी, इसी कलह के बीच बच्चों का जन्म होता है। ये बच्चे पैदाइश से ही
विकृत, परवर्टेड हो जाते हैं।
मेरी समझ में, मेरी दृष्टि में, मेरी धारणा में जिस दिन आदमी पूरी तरह आदमी
के विज्ञान को विकसित करेगा, तो शायद आपको पता लगे कि दुनिया में बुद्ध,
कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग शायद इसीलिए पैदा हो सके हैं कि उनके मां-बाप ने
जिस क्षण में संभोग किया था, उस समय वे अपूर्व प्रेम से संयुक्त हुए थे।
प्रेम के क्षण में गर्भस्थापन, कंसेप्शन हुआ था। यह किसी दिन, जिस दिन
जन्मविज्ञान पूरी तरह विकसित होगा, उस दिन शायद हमको यह पता चलेगा कि जो
दुनिया में थोड़े-से अद्भुत लोग हुए-शांत, आनंदित, प्रभु को उपलब्ध-वे लोग वे
ही है जिनका पहला अणु प्रेम की दीक्षा से उत्पन्न हुआ था, जिनका पहला अणु
प्रेम के जीवन में सराबोर पैदा हुआ था।
पति और पत्नी कलह से भरे हुए हैं, क्रोध से, ईर्ष्या से, एक-दूसरे के प्रति
सघर्ष से, अहंकार से, एक-दूसरे की छाती पर चढ़े हुए है, एक-दूसरे के मालिक
बनना चाह रहे है। इसी बीच उनके बच्चे पैदा हो रहे हैं। ये बच्चे किसी
आध्यात्मिक जीवन में कैसे प्रवेश पाएंगे?
मैंने सुना है, एक घर में एक मां ने अपने बेटे और छोटी बेटी को-वे दोनों बेटे
और बेटी बाहर मैदान में लड़ रहे थे, एक-दूसरे पर घूसेबाजी कर रहे थे-कहा कि
अरे यह क्या करते हो! कितनी बार मैंने समझाया कि लड़ा मत
करो, आपस में लड़ी मत। उस लड़के ने कहा, हम लड़ नहीं रहे हैं, हम तो
'मम्मी-डैडी' का खेल कर रहे हैं। वी आर नाट फाइटिंग, वी आर प्लेइंग मम्मी एंड
डैडी। जो घर में रोज हो रहा है, वह हम दोहरा रहे हैं। यह खेल जन्म के क्षण से
शुरू हो जाता है। इस संबंध में दो-चार बातें समझ लेनी बहुत जरूरी हैं।
मैरी दुष्टि में जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम के आधार पर मिलते हैं,
उनका संभोग होता है, उनका मिलन होता है तो उस परिपूर्ण प्रेम के तल पा उनके
शरीर हो नहीं मिलते है, उनका मानस भी मिलता है, उनकी आत्मा भी मिलती है। वे
एक लयपूर्ण संगीत में डूब जाते है, वे दोनों विलीन हो जाते हैं और शायद, शायद
परमात्मा ही शेष रह जाता है उस क्षण में। उस क्षण जिस बच्चे का गर्भाधान होता
है, वह बच्चा परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि प्रेम के क्षण का पहला
कदम उसके जीवन में उठा लिया गया है।
लेकिन जो मां-बापू पति और पत्नी आपस में द्वेष से भरे हैं, घृणा से भरे हैं
क्रोध से भरे हैं, कलह मे भरे हैं वे भी मिलते हैं, लेकिन उनके शरीर मिलते
हैं, उनकी आत्मा और प्राण नहीं मिलते। उनके शरीर के ऊपरी मिलन में जो बच्चे
पैदा हेते हैं वे अगर शरीरवादी मैटीरियलिस्ट पैदा होते हो, बीमार और रुग्ण
पैदा होते हों, और उनके जविन में अगर आत्मा की प्यास पैदा न होती हो, तो दोष
उन बच्चों पर मत देना। बहुत दिया जा चुका यह दोष। दोष देना उन मां-बाप को,
जिनकी छवि लेकर वह जन्मते हैं, जिनका सब अपराध और जिनकी सब बीमारियां लेकर
जन्मते हैं और जिनका सब क्रोध और घृणा लेकर जन्मते हैं। जन्म के साथ ही उनका
पौधा विकृत हो जाता है। फिर इनको पिलाओ गीता, इनको समझाओ कुरान, इनसे कहो कि
प्रार्थनाएं करो-जो झूठी हो जाती हैं, क्योंकि प्रेम का बीज ही शुरू नहीं हो
सका तो प्रार्थनाएं कैसे शुरू हो सकती हैं?
जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद से मिलते हैं तो वह मिलन एक
आध्यात्मिक कृत्य, स्प्रीचुअल एक्ट हो जाता है। फिर उसका काम, सेक्स से कोई
संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, वह मिलन शारीरिक नहीं है। वह मिलन
अनूठा है। वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितनी किसी योगी की समाधि। उतना ही
महत्त्वपूर्ण है वह मिलन, जब दो आत्माएं परिपूर्ण प्रेम से संयुक्त होती है।
उतना ही पवित्र है वह कृत्य-क्योंकि परमात्मा उसी कृत्य से जीवन को जन्म देता
है, और जीवन को गति देता है।
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