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संभोग से समाधि की ओर...
मेरी दृष्टि में प्रेम अब तक मनुष्य के जीवन का केंद्र नहीं बनाया जा सकता,
इसीलिए भूल हो गयी है। और प्रेम केंद्र बनेगा भी नहीं क्योंकि जिन चीजों के
कारण प्रेम जीवन का केंद्र नहीं बन रहा है, हम उन्हीं चीजों का शोरगुल मचा
रहे हैं आदर कर रहे हैं सम्मान कर रहे हैं उन्ही चीजों को बढ़ावा दे रहे हैं।
मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा ही गलत हो गयी है। इस पर
पुनर्विचार करना जरूरी है, अन्यथा सिर्फ हम कामनग़र कर सकते हैं और कुछ भी
उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्या आपको कभी यह बात खयाल में अयिा है कि आपका
परिवार प्रेम का शत्रु है? क्या कभी आपको यह बात खयाल में आयी है कि आपका
समाज प्रेम का शत्रु है? क्या कभी आपको यह बात कभी खयाल में आयी है कि मनु से
लेकर आज तक के सभी नीतिकार प्रेम के विरोधी हैं?
जीवन का केंद्र है-परिवार। और परिवार विवाह पर खड़ा किया गया है; जबकि परिवार
प्रेम पर खड़ा होना चाहिए था। भूल हो गयी है। आदमी के सारे पारिवारिक विकास की
भूल हो गयी है। परिवार निर्मित होना चाहिए प्रेम के केंद्र पर, कितु परिवार
निर्मित किया जाता है विवाह के केंद्र पर! इससे ज्यादा झूठी और मिथ्या बात
नहीं हो सकती है।
प्रेम और विवाह का क्या संबंध है?
प्रेम से तो विवाह निकल सकता है, लेकिन विवाह से प्रेम नहीं निकलता और न ही
निकल सकता है। इस बात को थोड़ा समझ लें तो हम आगे बढ़ सकें।
प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है और विवाह आदमी की व्यवस्था है।
विवाह सामाजिक संस्था है, प्रेम प्रकृति का दान है।
प्रेम तो प्राणों के किसी कोने में अनजाने पैदा होता है।
लेकिन विवाह? समाज, कानून नियमित करता है, स्थिर करता है, बनाता है।
विवाह आदमी की ईजाद है।
और प्रेम? प्रेम परमात्मा का दान है।
हमने सारे परिवार को विवाह के केंद्र पर खड़ा कर दिया है, प्रेम के केंद्र पर
नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया
में उतर जाएंगे। अद्भुत झूठी बात है यह, और पांच हजार वर्षों में भी हमको
इसका खयाल नहीं आ सका है! हम अद्भुत अंधे हैं। दो आदमियों के हाथ बांध देने
से प्रेम के पैदा हो जाने की जरूरत नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है। बल्कि
सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते हैं वे आपस में प्रेम कभी नहीं
कर सकते।
प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की
भूमि में-जहां कोई बंधन नहीं, जहां कोई जबर्दस्ती नहीं है, जहां कोई कानून
नहीं है।
प्रेम तो व्यक्ति का अपना आत्मदान है-बँधन नहीं, जबर्दस्ती नहीं! उसके पीछे
कोई विवशता, कोई मजबूरी नहीं है।
कितु हम अविवाहित स्त्री या पुरुष के मन मे, युवक और युवती के मन में उम
प्रेम की पहली किरण का गला घोंटकर हत्या कर देते है, फिर हम कहतें हैं विवाह
से प्रेम पैदा होना चाहिए। फिर जो प्रेम पैदा होता है, वह बिल्कुल पैदा किया,
कलटिवेटेड होता है, कोशिश से लाया गया होता है। वह प्रेम वास्तविक नहीं होता
वह प्रेम सहज-स्फूर्त, स्पांटेनिअस नहीं होता है। वह प्रेम प्राणो से सहज
उठता नहीं है, फैलता नहीं है। जिसे हम विवाह से उत्पन्न प्रेम कहते हैं वह
प्रेम केवल सहवास के कारण पैदा हुआ मोह होता है। प्राणों की ललक और प्राणों
का आकर्षण और प्राणों की विद्युत वहां अनुपस्थित होती है।
और इस तरह से परिवार बनता है। इस विवाह से पैदा हुआ परिवार और परिवार की
पवित्रता की कथाओं का कोई हिसाब नहीं है! परिवार की प्रशंसाओं स्तुतियों की
कोई गणना नहीं है! और यही परिवार सबसे कुरूप संस्था साबित हुई है, पूरी
मनुष्य जाति को विकृत करने में। प्रेम से शून्य परिवार मनुष्य को विकृत करने
में, अधार्मिक करने में, हिंसक बनाने में सबसे बड़ी संस्था साबित हुई है।
प्रेम मे शून्य परिवार से ज्यादा असुंदर और कुरूप, आलि कुछ भी नहीं है, और
वही अधर्म का अड्डा बना हुआ है।
जब हम एक युवक और युवती को विवाह में बाँधते हैं बिना प्रेम के बिना आंतरिक
परिचय के, बिना एक-दूसरे के प्राणों के संगीत के तब हम केवल पंडित के मंत्रों
और वेदों की पूजा में और थोथे उपक्रम में, उनको विवाह से बांध देते हैं। फिर
आशा करते हैं कि उनके जीवन में प्रेम पैदा हो जाएगा! प्रेम तो पैदा नहीं होता
है, सिर्फ उनके संबंध कामुक, सेक्सुअल होते हैं। क्योंकि प्रेम तो पैदा किया
जा सकता है। प्रेम पैदा हो जाय तो व्यक्ति साथ जुड़कर परिवार निर्माण कर सकता
है। दो व्यक्तियों को परिवार के निर्माण के लिए जोड़ दिया जाए और फिर आशा की
जाए कि प्रेम पैदा हो जाए, यह नहीं हो सकता है।
जब प्रेम पैदा नहीं होता है, तो क्या परिणाम होते है आपको पता है?
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