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संभोग से समाधि की ओर...
प्रेम और विवाह
मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर
हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई
आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है, सिर्फ एक छोटा-सा अनुभव है, जो
मनुष्य को ज्ञात नहीं है, सिर्फ एक छोटा-सा अनुभव है, जो मनुष्य को ज्ञात है।
और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है।
जिसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है, उसके जीवन में परमात्मा के आने की
कोई संभावना नहीं है।
न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती हैं न धर्मशास्त्र पहुंचा सकते हैं
न मंदिर-मस्जिद पहुंचा सकते हैं न कोई हिंदू और मुसलमानों के, ईसाइयों के,
पारसियों के संगठन पहुंचा सकते हैं।
एक ही बात परमात्मा तक पहुंचा सकती है और वह राह कि प्राणों में प्रेम की
ज्योति का जन्म हो जाए।
मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते रहे हैं। जिन्हें
हम धर्मगुरु कहते हैं वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते रहे।
जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहते हैं वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गए
हैं।
जो प्रेम परमात्मा तक पहुंचा सकता था वह अत्यंत उपेक्षित होकर जीवन के रास्ते
के किनारे अंधेरे मे कहीं पड़ा रह गया। इसलिए पांच हजार वर्षों से आदमी
प्रार्थनाएं कर रहा है, भजन-पूजन कर रहा है, मस्जिदों और मंदिरों की
मूर्तियों के सामने सिर टेक रहा है, लेकिन परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को
उपलब्ध नहीं हो सकी। परमात्मा की कोई किरण मनुष्य के भीतर अवतरित नहीं हो
सकी। कोरी प्रार्थनाएं हाथ मे रह गयी हैं और आदमी रोज-रोज नीचे गिरता गया है
और रोज-रोज अंधेरे में भटकता गया है। आनंद के केवल सपने हाथ में रह गए हैं।
सच्चाइयां अत्यंत दु:खपूर्ण होती चली गयी हैं। आज तो आदमी करीब-करीब ऐसी जगह
खड़ा हो गया है, जहां उसे यह खयाल भी लाना असंभव होता जा रहा है कि परमात्मा
भी हो सकता है।
क्या आपने कभी सोचा है कि यह घटना कैसे घट गयी है? क्या नास्तिक इसके लिए
जिम्मेदार हैं? या कि लोगों की आकांक्षाएं और अभीप्साएं परमात्मा की दिशा की
तरफ जाना बंद हो गयी हैं? क्या वैज्ञानिक और भौतिकवादी लोगों ने परमात्मा के
द्वार बंद कर दिए हैं?
नहीं, परमात्मा के द्वार इसलिए बंद हो गए हैं कि परमात्मा का एक ही द्वार
था-प्रेम और उस प्रेम की तरफ हमारा कोई ध्यान ही नहीं रहा है! और भी अजीब और
कठिन और आश्चर्य की बात यह हो गयी है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने मिल-जुलकर
प्रेम की हत्या कर दी और मनुष्य को जीवन में इस भांति सुव्यवस्थित करने की
कोशिश की गयी है कि उसमें प्रेम की किरण की संभावना ही न रह जाए।
प्रेम के अतिरिक्त मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है, जो प्रभु तक पहुंच
सकता हो। और इतने लोग जो वंचित हो गए है, प्रभु तक पहुंचने से, वह इसीलिए कि
वे प्रेम तक पहुंचने से ही वंचित रह गए हैं।
समाज की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा
केंद्र...अप्रेम केंद्र है। बच्चे के गर्भाधान, कंसेप्शन से लेकर उसकी मृत्यु
तक की सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है। और हम इसी समाज को, इसी परिवार को,
इसी गृहस्थी को सम्मान दिए जाते हैं, अदब दिए जाते हैं शोरगुल मचाए चले जाते
हैं कि बड़ा पवित्र परिवार है, बड़ा पवित्र समाज हैं, बड़ा पवित्र जीवन है। यही
परिवार और यही समाज और यही सभ्यता, जिसके गुणगान करते हम थकते नहीं है',
मनुष्य को प्रेम से रोकने का कारण बन रहा है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा। मनुष्यता के विकास में कही कोई बुनियादी
भूल हो गयी है। यह सवाल नहीं है कि एकाध आदमी ईश्वर को पा ले। कोई कृष्ण, कोई
राम, कोई बुद्ध कोई क्राइस्ट ईश्वर को उपलब्ध हो जाए। यह कोई सवाल नहीं है।
अरबों-खरबों लोगों में अगर एक आदमी में ज्योति उतर भी आती हो तो यह कोई विचार
करने की बात नहीं है। इसमें तो कोई हिसाब रखने की जरूरत भी नहीं है।
एक माली एक बगीचा लगाता है। उसने दस करोड़ पौधे उस बगीचे में लगाए हैं और एक
पौधे में एक अच्छा-सा फूल आ जाए तो माली की प्रशंसा करने कौन जाए? कौन कहेगा
कि माली तू बहुत कुशल है। तूने जो बगीचा लगाया है, वह बहुत अद्भुत है। देख,
दस करोड़ वृक्षों मै एक फूल खिल गया है। हम कहेंगे यह माली की कुशलता का सबूत
नहीं है-एक फूल खिल जाना। माली की भूल-चूक से खिल गया होगा। क्योंकि बाकी
सारे पेड़ खबर दे रहे हैं कि माली में कितना कौशल है। यह फूल माली के बावजूद
खिल गया होगा। माली ने कोशिश की होगी कि न खिल पाए, क्योंकि बाकी सारे पौधे
तो खबर दे रहे हैं कि माली के फूल कैसे खिले हैं!
खरबों लोगों के बीच कोई एकाध आदमी के जीवन में ज्योति जल जाती है और हम उसी
का शोरगुल मचाते रहते हैं हजारो साल तक पूजा करते रहते हैं, उसी के मंदिर
बनाते रहते हैं उसी का गुणगान करते रहते हैं। अब तक हम रामलीला कर रहे हैं!
अब तक हम बुद्ध की जयंती मना रहे है। अब तक महावीर की पूजा कर रहे हैं। अब तक
क्राइस्ट के सामने घुटने टेके बैठे हुए हैं। यह किस बात का सबूत है?
यह इस बात का सबूत है कि पांच हजार साल में पांच-छः आदमियों के अतिरिक्त
आदमियत के जीवन में परमात्मा का कोई संपर्क नहीं हो सका। नहीं तो कभी के हम
भूल गए होते राम को, कभी के भूल गए होते बुद्ध को, कभी के हम भूल गए होते
महावीर को।
महावीर को हुए ढाई हजार साल हो गए। ढाई हजार साल मे कोई आदमी नहीं हुआ कि
महावीर को हम भूल सकते। महावीर को याद रखना पड़ा है। वह एक फूल खिला था, जिसे
अब तक हमें याद रखना पड़ता है। यह कोई गौरव की बात नहीं है कि हमें अब तक
स्मृति है बुद्ध की, महावीर की, राम की, मुहम्मद की, क्राइस्ट की या
जरथुस्त्र की। यह इस बात का सबूत है कि और आदमी होते ही नहीं कि उनको हम भुला
सकें। बस दो-चार इने-गिनें नाम अटके रह गए हैं मनुष्य-जाति की स्मृति में।
और उन नामों के साथ हमने क्या किया है सिवाय उपद्रव के, हिंसा के। और उनकी
पूजा करनेवाले लोगों ने क्या किया है सिवाय आदमी के जीवन को नरक
बनाने के। मंदिरो और मस्जिदों के पुजारियों और पूजकों ने जमीन पर जितनी
हत्याएं की हैं, और जितना खून बहाया है, और जीवन का जितना अहित किया है उतना
किसी ने भी नहीं किया हैँ। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है नहीं तो
इतने पौधे लगें और फूल न आएं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। कही भूल जरूर हो गयी
है।
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