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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


इसका बुनियादी कारण यह है कि सेक्स को आज तक स्वीकार नहीं किया गया। जिससे जीवन का जन्म होता है, जिससे जीवन के बीज फूटते हैं। जिससे जावन के फूल आते हैं, जिससे जीवन की सारी सुंगध है, सारा रंग है। जिससे जीवन का सारा नृत्य है, जिसके आधार पर जीवन का पहिया घूमता है, उसको स्वकिार नहीं किया गया है। जीवन के मौलिक आधार को अस्वीकार किया गया है। जीवन में जो केद्रीय हैं, परमात्मा जिसको सृष्टि का आधार बनाए हुए है-चाहे फूल हो, चाहे पक्षी हो, चाहे बीज हो, चाहे पौधे हों, चाहे मनुष्य हो-सेक्स जो कि जीवन के जन्म का मार्ग है, उसको ही अस्वीकार कर दिया है!

उस अस्वीकृति के दो परिणाम हुए। अस्वीकार करते ही वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अस्वीकार करते ही वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया और मनुष्य के चित्त को उसने सब तरफ से पकड़ लिया। अस्वीकार करते ही उसे सीधा जानने का कोई उपाय नहीं रहा। इसलिए तिरछे जाने के उपाय खोजने पड़े, जिनसे मनुष्य का चित्त विकृत और बीमार होने लगा। जिस चीज को सीधा जानने के उपाय न रह जाएं और मन जानना चाहता हो, तो फिर गलत उपाय खोजने पड़ते हैं।

मनुष्य को अनैतिक बनाने में तथाकथित नैतिक लोगों का हाथ है। जिन लोगों ने आदमी को नैतिक बनाने की चेष्टा की है दमन के द्वारा, वर्जना के द्वारा, उन लोगों ने सारी मनुष्य-जाति को अनैतिक बना दिया।

और जितना आदमी अनैतिक होता चला जाता है, उतनी हो वर्जना सख्त होती चला जाती है। वे कहते हैं कि फिल्मों में नंगी तस्वीरे नहीं होनी चाहिए। वे कहते है, पोस्टरों पर नंगी तस्वीरें नहीं होनी चाहिए। वे कहते हैं किताब ऐसी होनी चाहिए। वे कहते हैं, फिल्म में चुंबन लेते वक्त कितने इंच का फासला हौ-यह भी गवर्नमेंट तय करे! वे यह सब कहते हैं। बड़े अच्छे लोग हैं वे, इसलिए वे कहते हैं कि आदमी अनैतिक न हो जाए।

और उनकी ये सब चेष्टाएं फिल्मों को और गंदा करती चली जाती हैं। पोस्टर और अश्लील होते चले जाते हैं। किताबें और गंदी होती चली जाती हैं। हां, एक फर्क पड़ता है। किताब के भीतर कुछ रहता है, ऊपर कवर कुछ और रहता है। और अगर ऐसा नहीं रहता है तो लड़का गीता खोल लेता है और गीता के अंदर दूसरी किताब रख लेता है, उसको पढ़ता है। बाइबिल का कवर चढ़ा लेता है ऊपर, फिर पड़ता है। कोई लड़का बाइबिल पढ़ता है, अगर बाइबिल पढ़ता हो तो समझना भीतर कोई दूसरी किताब है। यह सब धोखा, यह डिसेपान पैदा होता है वर्जना से।

विनोबा कहते हैं तुलसी कहते हैं अश्लील पोस्टर नहीं चाहिारा। पुरुषोत्तम टंडन तो यहां तक कहते थे कि खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों पर मिट्टी पोतकर उनकी प्रतिमाओं को ढक देना चाहिए। कही आदमी इनको देखकर गंदा न हो जाए। और बड़े मजे की बात यह है कि तुम ढकते चले जाओ, हजार साल से ढांक ही रहे हो, लेकिन इनसे आदमी गंदगी से मुक्त नहीं होता है। गंदगी रोज-रोज बढ़ती चली जाती है।

मैं यह पूछना चाहता हूं कि अश्लील किताब, अश्लील सिनेमा के कारण आदमी कामुक होता है या कि आदमी कामुक है, इसलिए अश्लील तस्वीर है और पोस्टर चिपकाए जाते हैं? कौन है बुनियादी?
बुनियाद में आदमी की मांग है, अश्लील पोस्टर के लिए, इसलिए अश्लील पोस्टर लगता है और देखा जाता है। साधु-संन्यासी भी देखते हैं उसको, लेकिन एक फर्क रहता है। आप उसको देखते हैं और अगर आप पकड़ लिए जाएंगे देखते हुए तो समझा जाएगा कि यह आदमी गदा है। और अगर कोई साधु-सन्यासी मिल जाए, और आप उससे कहें कि आप क्यों देख रहे है। तो वह कहेगा कि हम तो निरीक्षण कर रहे हैं स्टडी कर रहे हैं कि लोग किस तरह अनैतिकता से बचाए जाएं। इसलिए अध्ययन कर रहे हैं। इतना फर्क पड़ेगा। बाकी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि आप बिना देखे निकल भी जाए साधु संन्यासी बिना देखे कभी नहीं निकल सकते हैं क्योंकि उनकी वर्जना और भी ज्यादा है, उनका चित्त और भी वर्जित है।

एक संन्यासी मेरे पास आए। वे नौ वर्ष के थे, तब दुष्टों ने उनको दीक्षा दे दी। नौ वर्ष के बच्चे को दीक्षा देना कोई भले आदमी का काम हो सकता है? नौ वर्ष का बच्चा बाप मर गया है उसका। संन्यासियों को मौका मिल गया, उन्होंने उसको दीक्षा दे दी। अनाथ बच्चे के साथ कोई भी दुर्व्यवहार किया जा सकता था। उनको दीक्षा दे दी गई। वह आदमी नौ वर्ल की उम्र से बेचारा संन्यासी है। अब उसकी उम्र कोई पचास साल है। वह मेरे पास रुके थे। मेरी बातें सुनकर उनकी हिम्मत बढ़ी कि मुझसे सच्ची बातें कही जा सकती हैं। इस मुल्क में सच्ची बातें किसी से भी नहीं कही जा सकतीं। सच्ची बातें कहना मत, नहीं तो फंस जाओगे। इन्होंने एक रात मुझसे कहा कि मैं बहुत परेशान हूं, सिनेमा के पास से निकलता हूं तो मुझे लगता है, अंदर पता नहीं क्या होता होगा? इतने लोग अंदर जाते हैं इतनी क्यू लगाए खड़े रहते हैं जरूर कुछ न कुछ बच होगी। हालांकि मंदिर में जब मैं बोलता हूं, तो मैं कहता हूं कि सिनेमा जाने वाले नरक जाएंगे। लेकिन जिनको मैं
कहता हूं नरक जाओगे, वे नरक की धमकी से भी नहीं डरते हैं औंर सिनेमा जाते हैं। मुझे लगता है जरूर कुछ बात होगी।
नौ साल का बच्चा था, तब वह साधु हो गया। नौ साल के बाद ही उनकी बुद्धि अटकी रह गई। उससे आगे विकसित नहीं हई, क्योंकि जीवन के अनुभव से उन्हें तोड़ दिया गया। नौ साल के बच्चे के भीतर जैसे भाव उठे कि सिनेमा के भीतर क्या हो रहा है ऐसा उनके मन में उठता है। लेकिन किससे कहें? मुझसे कहा, तो मैंने उनसे कहा सिनेमा दिखला दूं आपको? वे बोले कि अगर दिखला दें तो बड़ी कृपा होगी। झंझट छूट जाए, यह प्रश्न मिट जाए कि क्या है वहां। एक मित्र को मैंने बुलाया कि इनको ले जाओ। वह मित्र बोले कि मैं झंझट में नहीं पड़ता। कोई देख ले साधु को लाया हूं, तो मैं झंझट में पड़ जाऊंगा। अंग्रेजी फिल्म दिखाने जरूर ले जा सकता हूं इनको, क्योंकि वह मिलिट्री एरिया में है, और उधर साधुओं को मानने वाले भक्त भी न होंगे। वहां मैं इनको ले जा सकता हूं। पर वे साधु अंग्रेजी नहीं जानते थे, फिर भी कहने लगे, कोई हर्ज नहीं कम-से-कम देख तो लेंगे कि क्या मामला है।

यह चित्त है और यही चित्त वहां गाली देगा मंदिर में बैठकर कि नरक जाओगे, अगर अश्लील पोस्टर देखोगे तो। यह बदला ले रहा है। वह 'तिरछा देखकर निकल गया आदमी' बदला ले रहा है। जिसने सीधा देखा, उनसे बदला ले रहा है। लेकिन सीधा देखने वाले मुक्त भी हो सकते हैं। तिरछा देखने वाले मुक्त कभी नहीं होते। अश्लील पोस्टर इसलिए लग रहे हैं, अश्लील किताबें इसलिए पढ़ी जा रही हैं, लड़के अश्लील गालियां इसलिए बक रहे हैं, अश्लील कपड़े इसलिए पहने जा रहे हैं, क्योंकि तुमने जो मौलिक था और स्वाभाविक था उसे अस्वीकार कर दिया है। उसकी अस्वीकृति के परिणाम में यह सब गलत रास्ते खोजे जा रहे हैं।
जिस दिन दुनिया में सेक्स स्वीकृत होगा, जैसा कि भोजन स्वीकृत है, स्नान स्वीकृत है, उस दुनिया में अश्लील पोस्टर नहीं लगेंगे, अश्लील किताबें नहीं छपेंगी, अश्लील मंदिर नहीं बनेगे। क्योंकि जैसे-जैसे वह स्वीकृत होता जाएगा, अश्लील पोस्टरों को बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga