ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
|
248 पाठक हैं |
संभोग से समाधि की ओर...
कोई बुनियदिा फर्क नहीं है आदमी आदमी में।
मन में भी होगा कि क्या है इस तख्ती के भीतर? यह तख्ती एकदम अर्थ ले लेगी।
हां कुछ जो अच्छे लड़के-लड़कियां नहीं हैं, वे आकर सीधा झांकने लगेंगे; वे ही
बदनामी उठाएंगे कि ये अच्छे लोग नहीं हैं। तख्ती जहां लगी थी कि नहीं
झांकना है, वहां एक वे ही नहीं झांकेगें, जो भद्र हैं सज्जन हैं अच्छे घर के
या इस तरह के वहम जिनके दिमाग में हैं वे उधर से तिरछी आंखें किए हुए निकल
जाएंगे। और आंखें तिरछी रहेंगी, दिखाई तख्ती ही पड़ेगी उन महाशय को भी। और
तिरछी आंखों में जो चीज दिखाई पड़ती है, वह बहुत खतरनाक होती है। दिखाई भी
नहीं पड़ती और दिखाई भी पड़ती है। देख भी नहीं पाते, मन में भाव भी रह जाता है
देखने का।
फिर पीड़ितजन जो वहां से तिरछी आंखें किए हुए निकल जाएंगे, वह इसका बदला
लेंगे। किससे? जो झाक रहे थे उनसे। गालियां देंगे उनको कि बुरे लोग हैं
अशिष्ट हैं सज्जन नहीं है, असाधु हैं। और इस तरह मन में सांत्वना कसोलेशन
जुटाएंगे कि हम अच्छे आदमी हैं इसलिए हमने झांककर नहीं देखा। लेकिन झांककर
देखना तो जरूर था, यह मन कहे चला जाएगा। फिर सांझ होते-होते, अंधेरा
घिरते-घिरते, वे आएंगे। क्लास में बैठकर पढ़ेंगे, तब भी तख्ती दिखाई पड़ेगी,
किताब नहीं। लेबोरेट्री में एक्सपेरीमेंट करते होंगे और तख्ती बीच-बीच में आ
जाएगी। सांझ तक वह आ जाएंगे देखने। आना पड़ेगा।
आदमी के मन के नियम हैं। इन नियमों का उल्टा नहीं हो सकता है। हां, कुछ जो
बहुत ही कमजोर होंगे, वह शायद नहीं आ पाएंगे तो रात सपने में उनको भी वहां
आना पड़ेगा। मन के नियम अपवाद नहीं मानते हैं। जगत के किसी नियम में कोई अपवाद
नहीं होता। जगत के नियम अत्यंत वैज्ञानिक हैं। मन के नियम भी उतने ही
वैज्ञानिक हैं।
यह जो सेक्स इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है वर्जना के कारण। वर्जना की तख्ती
लगी है। उस वर्जना के कारण यह इतना महत्वपूर्ण हो गया कि सारे मन को घेरे
रहता है। सारा मन सेक्स के इर्द-गिर्द घूमने लगता है।
फ्रायड ठीक कहता है कि मनुष्य का मन सेक्स के आस-पास ही घूमता है। लेकिन वह
यह गलत कहता है कि सेक्स महत्त्वपूर्ण है, इसलिए घूमता है।
नहीं घूमने का कारण है, वर्जना इनकार, विरोध, निषेध। घूमने का कारण है हजारों
साल की परंपरा। सेक्स को वर्जित, गर्हित निंदित सिद्ध करने वाली परंपरा इसके
लिए जिम्मेवार है। सेक्स को इतना महत्त्वपूर्ण बनाने वालों में साधु
महात्माओं का हाथ है, जिन्होंने तख्ती लटकाई है वर्जना की।
यह बड़ा उल्टा मालूम पड़ेगा, लेकिन यही सत्य है। और कहना जरूरी है कि
मनुष्य-जाति को सेक्यूअलटी की, कामुकता की तरफ ले जाने का काम महात्माओं ने
ही किया है। जितने जोर से वर्जना लगाई है उन्होंने, आदमी उतने जोर से आतुर
होकर भागने लगा है। इधर वर्जना लगा दी, उधर उसका परिणाम यह हुआ है कि सेक्स
आदमी की रग-रग से फूटकर निकल पड़ा है। थोड़ी खोजबीन करो, ऊपर की राख हटाओ, भीतर
सेक्स मिलेगा। उपन्यास कहानी, महान् से महान् साहित्यकार की जरा राख झाड़ो,
भीतर सेक्स मिलेगा। चित्र देखो, मूर्ति देखो, सिनेमा देखो, सब वही।
और साधु संत इस वक्त सिनेमा के बहुत खिलाफ हैं। शायद उन्हें पता नहीं कि
सिनेमा नहीं था तो भी आदमी यही सब करता था। कालिदास के ग्रंथ पढ़ो, कोई फिल्म
इतनी अश्लील नहीं बन सकती, जितने कालिदास के वचन हैं। उठाकर देखें, पुराने
साहित्य को, पुरानी मूर्तियों को, पुराने मंदिरों को। जो फिल्म में है, वह
पत्थरों में खुदा मिलेगा। लेकिन उनसे आंखें नहीं खुलतीं हमारी। हम अंधे की
तरह पीछे चले जाते हैं लकीरों पर।
सेक्स जब तक दमन किया जाएगा और जब तक स्वस्थ खुले आकाश में उसकी बात न होगी
और जब तक एक-एक बच्चे के मन से वर्जना की तख्ती नहीं हटेगी, तब तक दुनिया
सेक्स के आब्सेशन से मुक्त नहीं हो सकती। तब तक सेक्स एक रोग की तरह आदमी को
पकड़े रहेगा। वह कपड़े पहनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। खाना खाएगा तो नजर सेक्स
पर होगी। किताब पड़ेगा तो नजर सेक्स पर होगी। गीत गाएगा तो नजर सेक्स पर होगी
संगीत सुनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। नाच देखेगा तो नजर सेक्स पर होगी, संगीत
सुनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। सारी जिदगी उसकी सेक्स के आसपास घूमेगी।
अनातोले फ्रांस मर रहा था। मरते वक्त एक मित्र उसके पास गया और अनातोले जैसे
अद्भुत साहित्यकार से उसने पूछा कि मरते वक्त तुमसे पूछता हूं अनातोले कि
जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण क्या है? अनातोले ने कहा जरा पास आ जाओ, कान में
ही बता सकता हूं। आस-पास और लोग भी बैठे हैं। मित्र पास आ गया। वह हैरान हुआ
कि अनातोले जैसा आदमी, जो मकानों की चोटियों पर चढकर चिल्लाने का आदी है, जो
उसे ठीक लगा हमेशा कहता रहा है, वह आज भी मरते वक्त इतना कमजोर हो गया है कि
जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात बताने को कहता है कि पास आ जाओ, कान में कहूंगा।
सुनो धीरे से कान में! मित्र पास सरक आया। अनातोले कान के पास ओंठ ले गया
लेकिन कुछ बोला नहीं। मित्र ने कहा, बोलते नहीं! अनातोले ने कहा, तुम समझ गए
होओगे, अब बोलने की क्या जरूरत है।
ऐसा मजा है। और मित्र समझ गए और तुम भी समझ गए होंगे, लेकिन हंसते नहीं। समझ
गए हैं? बोलने की कोई जरूरत नहीं है? यह क्या पागलपन है? यह कैसे मनुष्य को
पागलपन की ओर ले जाने की, दुनिया को पागलखाना बनाने की कोशिश चल रही है?
|