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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


युवक और यौन

एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।

एक बहुत अद्भुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसरुद्दीन। एक दिन सांझ वह अपने घर से बाहर निकलता था मित्रों से मिलने के लिए, तभी द्वार पर एक बचपन का बिछड़ा हुआ साथी घोड़े से उतरा। बीस वर्ष बाद वह मित्र उससे मिलने आया था। लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि तुम ठहरो घड़ी भर, मैंने किसी को वचन दिया है, उनसे मिलकर अभी लौटकर आता हूं। दुर्भाग्य कि वर्षों बाद तुम मिले हो और मुझे घर से अभी जाना पड़ रहा है, लेकिन मैं जल्दी ही लौट आऊंगा।

उस मित्र ने कहा, तुम्हें छोड़ने का मेरा मन नहीं वर्षों बाद हम मिले हैं। उचित होगा कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं। रास्ते में तुम्हें देखूंगा भी, तुम से बात भी कर लूंगा। लेकिन मेरे सब कपड़े धूल से भरे हैं। अच्छा होगा, यदि तुम्हारे पास दूसरे कपड़े हों तो मुझे दे दो।

वह फकीर कपड़े की एक जोड़ी, जिसे बादशाह ने उसे भेंट की थी-सुंदर कोट था पगडी थी, जूते थे-वह अपने मित्र के लिए निकाल लाया। उसने उसे कभी पहना नहीं था। सोचा था; कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। फिर वह फकीर था। वे कपड़े बादशाही थे, हिम्मत भी उसकी पहनने की नहीं पड़ी थी। 

मित्र ने जल्दी से वे कपड़े पहन लिए। जब मित्र कपड़े पहन रहा था, तभी नसरुद्दीन को लगा कि यह तो भूल हो गई। इतने सुंदर कपड़े पहनकर वह मित्र तो एक सम्राट् मालूम पड़ने लगा और नसरुद्दीन उसके सामने एक फकीर, एक भिखारी मालूम पड़ने लगा। सोचा रास्ते पर लौग मित्र की तरफ दी देखेंगे, जिसके कपड़े अच्छे है। लौग तो सिर्फ कपड़ों का तरफ देखते है और ता कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। जिनके घर ले जाऊगा, वह भी मित्र को ही देखेगे, क्योंकि हमारे आंख इतनी अंधी हैं कि सिवाय कपड़ों के ओंर कुछ भी नहीं देखती। उसके मन मे बहुत पीड़ा होने लगी कि यह कपड़े पहनाकर मैंने एक भूल कर ली।

लेकिन फिर उसे खयाल आया कि मेरा प्यारा मित्र है, वर्षा के बाद मिला है, क्या अपने कपड़े भी मैं उसको नहीं दे सकता? इतनी नीच, इतनी क्षुद्र मेरी वृत्ति हें! क्या रखा है कपडों में? यही सब अपने को समझता हुआ वह चला, रास्ते पर सारी नजरें उसके मित्र के ऊपड़ों पर अटक गई। जिसने भी देखा, वही गौर से देखने लगा। वह मित्र बड़ा सुदर मालूम पड़ रहा था! जब भी कोई उस के मित्र को देखता, नसरुद्दीन के मन में चोट लगती कि कपड़े मेरे है और देखा मित्र जा रहा है! फिर अपने को समझाता कि कपड़े क्या किसी के होते है? मै तो शरीर तक को अपना नहीं मानता तो कपड़े को अपना क्या मानना है? इसमे क्या हर्ज हो गया है?

समझाता-बुझाता अपने मित्र के घर पहुंचा। भीतर जाकर जैसे ही मदर गया परिवार के लोगों की नजरें उसके मित्र के कपड़ों पर अटक गई। फिर उसे चोट लगी, ईर्ष्या मालूम हुई कि मेरे ही कपड़े और में ही उसके सामने दीन लग रहा हूं! बड़ी भूल हो गई। फिर अपने को समझाया फिर अपने मन को दबाया।

घर के लोग पूछने लगे कौन है यह? नसरुद्दीन ने परिचय दिया। कहा, मेरे मित्र हैं बचपन के, बहुत अद्भुत व्यक्ति है। जमाल इनका नाम है। रह गए कपड़े सो मेरे है।
घर के लोग बहुत हैरान हुए। मित्र भी हैरान हुआ। नसरुद्दीन भी कहकर हैरान हुआ। सोचा भी नहीं था कि ये शब्द मुंह से निकल जाएंगे।
लेकिन जो दबाया जाता है, वह निकल जाता है। जो दबाओ, वह निकलता है; जो सप्रेस करो, वह प्रकट होगा। इसलिए भूल कर भी गलत चीज न दबाना, अन्यथा सारा जोवन गलत चीज की अभिव्यक्ति बन जाता है।
वह बहुत घबरा गया। सोचा भी नहीं था कि ऐसा मुंह से निकल जाएगा। मित्र भी बहुत हतप्रभ रह गया। घर के लोग भी सोचने लगे, यह क्या बात कह्यई! बाहर निकलकर मित्र ने कहा, क्षमा करो, अब मैं तुम्हारे साथ दूसरे घर में नहीं जाऊंगा। यह तुमने क्या बात कही?

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga