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संभोग से समाधि की ओर...
गांव में चिकित्सक की तभी तक जरूरत है, जब तक लोग बीमार पड़ते हैं। जिस दिन
आदमी बीमार पड़ना बंद कर देगा, उस दिन चिकित्सक को विदा कर देना पड़ेगी। तो
हालांकि चिकित्सक ऊपर से बीमार का इलाज करता हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर
से उसके प्राणों की आकांक्षा यही होती है कि लोग बीमार पड़ते रहें। यह बड़ी
उल्टी बात है, क्योंकि चिकित्सक जीता है लोगों के बीमार पड़ने पर। उसका
प्रोफेशन बड़ा कंट्राडिक्टरी है, उसका धधा बड़ा विरोधी है। कोशिश तो उसकी यह है
कि लोग बीमार पड़ते रहें। और जब मलेरिया फैलता है और फ्लू की हवाएं आती हैं तो
वह भगवान को एकांत में धन्यवाद देता है, क्योंकि यह धंधे का वक्त आया-सीजन
है!
मैंने सुना है, एक रात एक मधुशाला में बड़ी देर तक मित्र आकर खाना-पीना करते
रहे, शराब पीते रहे। उन्होंने खूब मौज की जब वे चलने लगे आधी रात को तो
शराबखाने के मालिक ने अपनी पत्नी को कहा कि भगवान को धन्यवाद, बड़े भले लोग
आए। ऐसे लोग रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में हम मालामाल हो जाएं।
विदा होते मेहमानों को सुनाई पड़ गया और जिसने पैसे चुकाए थे उसने कहा दोस्त
भगवान से प्रार्थना करो कि हमारा धंधा रोज चलता रहे तो हम तो रोज आए।
चलते-चलते उस शराबघर के मालिक ने पूछा कि भाई, तुम्हारा धंधा क्या है?
उसने कहा, मेरा धंधा पूछते हो, मैं मरघट पर लकड़ियां बेचता हूं मुर्दों के
लिए। जब आदमी ज्यादा मरते हैं तब मेरा धंधा चलता है, तब हम थोड़े खुश होते
हैं। हमारा धंधा रोज चलता रहे, हम रोज यहां आते रहें।
चिकित्सक का धंधा है कि लोगों को ठीक करें। लेकिन फायदा, लाभ और शोषण इसमें
है कि लोग बीमार पड़ते रहें। तो एक हाथ से चिकित्सक ठीक करता है और उसके
प्राणों के प्राण की प्रार्थना होती है कि मरीज जल्दी ठीक न हो जाए।
इसीलिए पैसे वाले मरीज को ठीक होने में बड़ी देर लगती है। गरीब मरीज जल्दी ठीक
हो जाता है; क्योंकि गरीब मरीज को ज्यादा देर बीमार रहने से कोई फायदा नहीं
है। चिकित्सक को कोई फायदा नहीं है। चिकित्सक को फायदा है अमीर मरीज से! तो
अमीर मरीज लंबा बीमार रहता है। सच तो यह है कि अमीर आंतरिक अक्सर बीमार रहते
हैं। वह चिकित्सक की प्रार्थनाएं काम कर रही हैं। उसकी आंतरिक इच्छा भी उसके
हाथ को रोकती है कि मरीज एकदम ठीक ही न हो जाए।
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