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संभोग से समाधि की ओर...
उपदेशक की स्थिति भी ऐसी ही है। समाज जितना नीतिभ्रष्ट हो, जितना व्यभिचार
फैले, जितना अनाचार फैले, उतना ही उपदेशक का मंच ऊपर उठने। लगता है, क्योंकि
जरूरत आ जाती है कि वह लोगों को कहे; अहिंसा का पालन करो, सत्य का पालन करो,
ईमानदारी स्वीकार करो: यह व्रत पालन करो, वह व्रत पालन करो। अगर लोग व्रती
हों, अगर लोग सयमी हों, अगर लोग शांत हों, ईमानदार हों तो उपदेशक मर गया।
उसकी कोई जगह न रही।
और हिंदुस्तान में सारी दुनिया से ज्यादा उपदेशक क्यों हैं? ये गांव-गांव
गुरु और घर-घर स्वामी और संन्यासी क्यों हैं? यह महात्माओं की इतनी भीड़ और यह
कतार क्यों है?
यह इसलिए नहीं है कि आप बड़े धार्मिक देश हैं जहां कि संत-महात्मा पैदा होते
हैं। यह इसीलिए है कि आप इस समय पृथ्वी पर सबसे ज्यादा अधार्मिक और अनैतिक
देश है। इसीलिए इतने उपदेशकों को पालने का ठेका और धंधा मिल जाता है। हमारा
तो जातीय रोग हो गया है।
मैंने सुना है कि अमरीका में किसी ने एक लेख लिखा हुआ था। किसी मित्र ने वह
लेख मेरे पास भेज दिया। उसमें एक कमी थी। उन्होंने मेरी सलाह चाही। किसी ने
लेख लिखा था वहां-मजाक का कोई लेख था, उसमें लिखा था कि हर आदमी और हर जाति
का लक्षण शराब पिलाकर पता लगाया जा सकता हैं कि बेसिक कैरेक्टर क्या है?
उसने लिखा था कि अगर डच आदमी को शराब पिला दी जाए तो वह एकदम से खाने पर टूट
पड़ता है, फिर वह किचेन के बाहर ही नहीं निकलता। फिर वह एकदम खाने की मेज से
उठता ही नहीं। बस शराब पी कि वह दो-दो, तीन-तीन घंटे खाने में लग जाता है।
अगर फ्रेंच को शराब पिला दी जाए तों शराब पीने के बाद वह एकदम नाच-गाने के
लिए तत्पर हो जाता है और अंग्रेज को शराब पिला दी जाए तो वह एकदम चुप होकर
कोने में मौन हो जाता है। वह वैसे ही चुप बैठा रहता है। और शराब पी ली तो
उसका कैरेक्टर है, वह और चुप हो जाता है। ऐसे दुनिया के सारे लोगो के लक्षण
थे। लेकिन भूल से या अज्ञान के वश भारत के बाबत कुछ भी नहीं लिखा था, तो किसी
मित्र ने मुझे लिख भेजा और कहा कि आप भारत के कैरेक्टर के बाबत क्या कहते
हैं? अगर भारतीय को शराब पिलाई, जहां तो क्या होगा?
तो मैंने कहा कि वह तो जग जाहिर बात है। भारतीय शराब पिएगा और तत्काल उपदेश
देना शुरू कर देगा। यह उसका कैरेक्टरस्टिक है, वह उसका जातीय गुण है।
यह जो-उपदेशकों का समाज और साधु संतों और महात्माओं की लंबी कतार हैँ, ये रोग
के लक्षण हैं ये अनीति के लक्षण हैं। और मजा यह है कि इनमे से कोई भी भतित
हृदय से कभी नहीं चाहता कि अनीति मिट जाए रोग मिट जाए क्योंकि उनके मिटने के
साथ वह भी मिट जाते हैं। प्राणों को पुकार यही होता है कि रोग बना रहे और
बढ़ता चला जाए।
और उस रोग को बढ़ाने के लिए जो सबसे सुगम उपाए है, वह यह हैं कि जीवन के संबंध
में सर्वांगीण ज्ञान उत्पन्न न हो सके। और जीवन के जो सबसे ज्यादा गहरे
केंद्र हैं जिनके अज्ञान के कारण, अनीति और व्यभिचार और भ्रष्टाचार फैलता है,
उन केंद्रों को आदमी कभी भी न जान सके, क्योंकि उन केंद्रों को जान लेने के
बाद मनुष्य के जीवन से अनीति तत्काल विदा हो सकती है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि सेक्स मनुष्य की अनीति का सर्वाधिक केंद्र है।
मनुष्य के व्यभिचार का, मनुष्य की विकृति का सबसे मौलिक, सबसे आधारभूत केंद्र
वहां है। और इसलिए धर्मगुरु उसकी बिल्कुल बात नहीं करना चाहते!
एक मित्र ने मुझे खबर भिजवाई है कि कोई संत-महात्मा सेक्स की बात नहीं करता।
और आपने सेक्स की बात की तो हमारे मन में आपका आदर बहुत कम हो गया है।
मैंने उनसे कहा इसमें कुछ गलती नहीं है। पहले आदर था उसमें गलती थी। इसमें
क्या गलती हुई? मेरे प्रति आदर होने की जरूरत क्या है? मुझे आदर देने का
प्रयोजन क्या है? मैने कब मांगा है कि मुझे आदर दें? देते थे तो आपकी गलती
थी, नहीं देते हैं तो आपकी कृपा है। मैं महात्मा नहीं रहा। मैंने कभी चाहा
होता कि मैं महात्मा होऊं तो मुझे बड़ी पीड़ा होती, मैं कहता, क्षमा करना भूल
से ये बातें मैंने कह दीं।
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