अंधेरा चूंकि बहुत ज्यादा था, इसलिए हम नहीं कह सकते कि हममें से किसके पास
लेटने के लिए बेहतर जगह थी। लेटते-लेटते बाहर से सावधान', 'सावधान' की आवाजें
आने लगी थीं। शायद वे लोग घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे।
दाहिने हाथ की कुहनी पर चूंकि बहुत ज्यादा चोट थी, इसलिए मैं बाईं करवट सोया।
चित लेटने पर पैर किसी दूसरे से जा टकराए थे। कनपटी फर्श से टिकाते ही जली
हुई चीजों की गंध ज्यादा नजदीक से महसूस हुई थी।
आग बुझ जाने के बाद जली हुई चीजों में एक अजीब गंध आती है। गंध बहुत देर तक
जलाए जाने का उलाहना देती रहती है। पता नहीं कहां क्या जलकर गिरा होगा, जो इस
वक्त मेरी कनपटी से सटा हुआ था। एक हाथ की कुहनी और दूसरे हाथ की उंगलियों
में तकलीफ न होती तो शायद मैं चेहरे के पास से वह कूड़ा हटाने की कोशिश करता।
यह अजीब बात थी कि हममें से हर कोई बहुत ज्यादा खामोश था। सिर्फ जगह बनाकर
लेटने की कोशिश की आवाज या किसी की खाँसी को छोड़कर वहां सन्नाटा था।
गहरे अंधेरे में भीड़ भी हो तो भी आदमी काफी एकांत हो जाता है, बशर्ते कि सब
चुप हों। उस एकांत में सबसे पहले मुझे बीवी का ख्याल आया।
जिस वक्त वे लोग मुझे घसीटकर धक्के देते हुए बाहर ला रहे थे, वह उनसे चीखकर
कुछ कह रही थी। पीछे मुड़कर देखना संभव नहीं हुआ।
वे लोग तादाद में काफी थे। रात के अंधेरे में और वह भी इतने तेज़ हमले में
उन्हें गिन पाना संभव भी नहीं था।
हालाँकि हमें कई दिन से लग रहा था कि उन लोगों की तरफ से कोई ऐसा हमला होगा,
पर हमें यह नहीं पता था कि सहसा इस तरह सब कुछ होगा। कुछ दिनों से दो-तीन
मोटरसाइकिलों पर कुछ लोग उधर से इस तरह गुजरते थे गोया मेरे घर की टोह ले रहे
हों। उनमें से बहुत स्वस्थ और मजबूत एक आदमी साधुओं की तरह पीले कपड़े पहने
होता था।
उसके बाद एक दिन जब मैं अपने कुत्ते को घुमाने निकला, मैंने देखा, बाहर के
फाटक के दोनों खंभों पर गेरू में डुबाए हुए हाथ के पंजे छपे हैं।
उसके ठीक अगली सुबह घर पर भारी पथराव हुआ था। पथराव में पत्नी बुरी तरह घायल
हुई थी। उसके सिर से टपका खून बहुत दिनों तक चहारदीवारी के अंदर के फर्श पर
छितराया रहा था और हमारे कुत्तों ने बाहर निकलते ही उसे सूंघना शुरू कर दिया
था।
इस तरह घायल होने में काफी कुछ गलती मेरी बीवी की ही थी। मैं उस वक्त सबसे
पिछले कमरे में सो रहा था। नींद में ही मैंने सुना, वह कह रही थी, 'जल्दी
उठिए, मेरा सिर फट गया है।'
जागने पर भी दो पल मैं कुछ समझ नहीं पाया था। जो सलवार-कमीज उसने पहन रखी थी,
उसका काफी हिस्सा ताजे खून से भीगा हुआ था और खून से सने दुपट्टे को उसने सिर
के ऊपर दबा रखा था।
दरअसल बहुत सुबह उन लोगों ने घर पर पथराव किया था। कुत्ते बहुत जोर से भौंकने
लगे थे। पत्नी ने दरवाजा खोलकर देखना चाहा कि बात क्या है। इस बीच जरा-सी
संधि से ही उसका प्यारा छोटा कुत्ता बाहर निकल गया। उसे वह दरवाजे से बाहर
कभी नहीं जाने देती थी, क्योंकि एक तो वह कुछ भोंदू था और दूसरे, बालों की
वजह से उसकी आँखें पूरी तरह ढकी रहती थीं। एक बार सड़क पर निकल जाने के बाद
उसका लौट पाना संदिग्ध हो जाता।
जैसे ही कुत्ते को पकड़ने के लिए वह दरवाजे के बाहर आई, फेंकी गई ईट का
टुकड़ा उसके सिर से टकराया। इतने के बावजूद उसने नन्हे कुत्ते को पकड़ा। तभी
खून बाहर तमाम फर्श पर फैला हुआ था।
मुझे जले हुए कूड़े पर लेटे-लेटे लगा, उसमें एक अजब तरह की हिम्मत है। निश्चय
ही उन लोगों ने उसे भी पकड़ा होगा। यह भी हो सकता है कि वह उनसे लड़ी हो। वह
लड़ सकती थी। किसी भी कीमत पर संघर्ष कर सकती थी। जिस बदतमीजी से वे लोग
औरतों के साथ पेश आते थे, उसे देखते हुए उनकी उस हिंसक भीड़ के सामने भी वह
दबने वाली नहीं थी. यह मैं जानता हूँ; लेकिन यह भी सच है कि उसके न दबने से
हिंसक भीड़ ज्यादा आक्रामक हो गई होगी।
पथराव वाली घटना को करीब साल हो चुका था। या कुछ ज्यादा ही। उन दिनों
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके साथी दल एक अजीब आंदोलन चला रहे थे, जिसे वे
'ललकार' कहते थे। एक झंड बनाकर वे निकलते थे। उनमें से कुछ के हाथों में तो
पीले रंग की झंडियाँ होती थीं. लेकिन बाकी हॉकियाँ यह डंडे लिए होते थे। किसी
भी गली-मोहल्ले से गुजरते हए, वे बुरी तरह शोर करते थे। किसी मुसलमान का मकान
देखकर वे उसके दरवाजे पर हॉकियाँ पटकते थे, जिससे एक दहशत फैल जाती थी।
इन लोगों का निशाना मुसलमान तो होते ही थे, वे हिंदू भी इसी तरह आतंकित किए
जाते थे, जिनके बारे में उन्हें पता होता था कि वे 'ललकार' वालों से असहमत
हैं। कई बार अपनी घृणा दिखाने के लिए वे इनके दरवाजों पर थूकते थे या खुलेआम
पेशाब कर देते थे।
एक बार ऐसी ही हरकत करने पर आमादा लड़कों को बीवी ने बुरी तरह डांटा था,
बल्कि गुस्से में उसने बड़े वाले कुत्ते को उन पर छोड़ देने की धमकी भी दे
डाली थी।
लड़के बेशर्मी के साथ हंसते और चिल्लाते हुए आगे बढ़ गए थे।
बीवी के साथ हुई उस दुर्घटना के बाद एक शाम मैंने दरवाजा खोला ही था कि पांच
लंबे युवक दिखाई दिए। वे शायद उसी क्षण घंटी बजाने वाले थे। दरवाजा खलते ही
उनमें से एक थोड़ी तल्ख आवाज में बोला, 'मुझे आपसे कुछ बात करनी है।'
'मगर, अभी तो मैं जा रहा हूँ। आप लोग फिर कभी आएँ। मैंने कहा।
आधा कदम और आगे बढ़ाकर उन्होंने कहा, 'हमें अभी बात करनी है।' 'क्या बात करनी
है?'
थोड़ा-सा पीछे खड़ा हुआ युवक आगे आया. 'कल आपने जो छपाया है, हमें उसके बारे
में बात करनी है।'
कमरे में आकर उनमें से सिर्फ दो ही बैठे, बाकी आसपास खड़े रहे और लगभग एक साथ
गुस्सा जाहिर करते रहे। वे बेहद उत्तेजित थे और कोई भी तर्क स्वीकार करने को
तैयार नहीं थे।
'यह क्या हो रहा है? आपको पता है, आप किससे बात कर रहे हैं?' सहसा मेरी बीवी
वहां आ खड़ी हुई, 'यह कोई बातचीत का तरीका है? इतने बड़े आदमी से इस तरह बात
की जाती है? बड़े-बड़े लोग इनके पैर छूते हैं।'
मेरे महत्त्व के बारे में कभी-कभी मेरी बीवी किसी से ऐसा कुछ कहने लग जाती थी
कि मुझे भी संकोच को आए, पर यह चकित होने वाली वात थी कि उन युवकों की आवाज
में उतनी तेजी नहीं रह गई थी।
बैठे हुए युवक भी खड़े हो गए। जाते-जाते उन्होंने धमकी भी दी। साफ तो नहीं,
पर उन्होंने यह जाहिर किया था कि अगर मैंने अपने विचार नहीं बदले तो वे बम से
उड़ा देंगे।
उनकी उस धमकी ने नहीं, बल्कि इस बात ने मुझे उलझन में डाल दिया था कि वे कोई
भी तर्क सुनने को तैयार नहीं थे। वे अनपढ़ नहीं थे, पर ऐसे लोग अब अक्सर मिल
जाते थे, जो दस्तानों में बना ली गई कठपुतलियों की तरह आचरण करते थे। किसी भी
तर्क को वे खारिज कर देते थे। किसी भी सवाल का एक ही जवाब उनके पास होता था,
'आप लोग हिंदू-विरोधी हैं।'
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