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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


बाहर किसी की आवाज भी सुनाई दी थी, “अबे इतने बड़े मकान में आठ लालटेनों से क्या होगा?"

किसी ने दूर से जवाब दिया, "इतनी ही मिली हैं। और जगह भी तो जरूरत है।" “साले इतनी बड़ी संख्या में सूअर भरे हैं इसमें।

"कोई हरामजादा टांग भी बाहर निकाले तो काटकर फेंक देना," दूसरे ने इस तरह कहा, जैसे अपने साथियों से ज्यादा हमें सुनाना चाह रहा हो, “वैसे सबेरे तक और इंतजाम हो जाएगा, इस वक्त काम चला लो।"

"काम तो चल ही जाएगा।" पहला फिर बोला, "ये लालटेनें भी न होतीं तो भी काम चला लेते। तेंदुए की आँखें हैं, अंधेरे में भी देख लेंगे।"

कोई तीसरा थोड़ी और दूर से एक अश्लील हँसी हँसकर बोला, "इन हरामियों को तो हम सूंघकर भी जान लेते हैं। सेकूलर साला दूर से भी मुसल्ले की दाढ़ी की तरह महकता है।"

इस बात पर बाहर बहुत-से लोग हँसे, फिर उन्हीं में से किसी ने संशोधन किया, “दाढ़ी! कहां की दाढ़ी?"

इस पर भी वे लोग इस तरह हँसे, जैसे कोई बहुत ही उम्दा किस्म का मजाक किया गया हो।

अब तक इतना कुछ हो चुका था कि शब्द हमें तकलीफ पहुंचाने में विल्कुल ही असमर्थ हो रहे थे, बल्कि इस बीच चूंकि हमें यह एहसास हो चुका था कि वे हमें फिलहाल जिंदा जलाने नहीं जा रहे थे, इसलिए हमारा गहरा होता तनाव फिर थम गया था।

इतनी विचित्र-सी जेल में हमें कब तक रहना होगा?

लालटेनें जलते वक्त तक काफी शोर होता रहा, फिर यकायक वह थम गया, जैसे किसी ने कोई आदेश दिया हो।

कुछ देर कदमों की धमक सुनाई देती रही, फिर कोई ऊंची आवाज में बोला, “पहरे में शिथिलता न आने पाए।"

इसके बाद एक विचित्र किस्म की प्रार्थना उन्होंने शुरू कर दी। पता नहीं कहां से ऐसे वक्तों के लिए उन लोगों ने न सिर्फ प्रार्थना लिखी थी, बल्कि उसकी धुन भी याद कर रखी थी। गोकि वह प्रार्थना किसी फिल्म के गाने का अनुकरण थी, पर उसके शब्द अलग थे।

थोड़ी देर में हमें यह अनुभव हो गया कि वह प्रार्थना सिर्फ मीम नसीम की इमारत में ही नहीं गाई जा रही थी, बल्कि वे लोग शहर में जहां कहीं भी थे, यही प्रार्थना दुहरा रहे थे। प्रार्थना के बाद उन्होंने अपनी वे पांच प्रतिज्ञाएं भी दुहराईं, जिनका किसी समय हम लोग खासा मजाक उड़ाया करते थे।

इस प्रार्थना और प्रतिज्ञाओं से हम पर एक असर जरूर हुआ। इन्हें सुनकर हमारे मन में उन लोगों के प्रति जो वितृष्णा पैदा हुई, उसने हमारे सदमे को थोड़ा कम कर दिया और उस जली हुई अंधेरी और तंग जगह में हम एक ठिकाना खोजने लगे।

असली भीड़ का एहसास हमें अब हुआ था।

आदमी की एक अजीब आदत होती है। चाहे जिस हाल में भी वह क्यों न हो, एक ऐसा ठिकाना सबसे पहले खोजता है, जिसे वह अपना मान सके, भले ही उसे अपना कहने या मानने का उसके पास कोई कारण न हो। यह काम वह सबसे पहले करता है। सामान्य स्थितियों में तो लोग इसका अनुभव करते ही हैं, पर असाधारण हालात में यह प्रवृत्ति न सिर्फ बलवती हो जाती है, बल्कि इसमें एक तरह की क्रूर हिंसा भी आ जाती है।

गली-मुहल्लों में रहने वाले लोगों में तो यह प्रवृत्ति बहुत आम होती है। अक्सर वे यह भी बर्दाशत नहीं करते कि आपकी बीवी उनकी तरफ की मुँडेर पर अपना तौलिया फैला दे। जनांदोलनों तक में यह स्पर्धा मैंने देखी है।

एक बार हमलोग बंबई जा रहे थे। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने बड़ी तादाद में गेहूँ आयात कर लिया था।

हमलोग गेहूँ-आयात के खिलाफ बंदरगाहों पर धरना देने जा रहे थे। रेलगाड़ी बंबई के स्टेशन पर करीब ग्यारह बजे रात को पहंची। हमारे पूरे जत्थे को चौपाटी नाम की जगह पहुंचकर रात बितानी थी।

ठहरने की उस जगह को देखकर हम घबरा गए। बालू के ऊपर काफी दूरी तक तंबू तान दिए गए थे। बालू के ऊपर नाकाफी-सी दरियाँ डाल दी गई थीं, जो नीचे के बालू से अटी पड़ी थीं। जो लोग पहले पहुंच गए थे, उन्होंने अपने-अपने बिस्तर खोल लिए थे।

बुरी तरह थके होने के बावजूद एक अपेक्षाकृत साफ दरी के सिरे पर जगह पाने के लिए आनंद मोहन सराउगी अपनी बूढ़ी उम्र लिए तेजी से लपके। इस प्रक्रिया में उनकी एक चप्पल उलझकर पीछे छूट गई। अपना बिस्तर और थैला चुनी हुई जगह रखकर चप्पल के लिए वापस लौटे। चप्पल जल्दी नहीं मिली। पीछे आ रहे लोगों के पैरों से दबकर वह बालू में छुप गई।

चप्पल झाड़ते हुए जब सराउगी वापस लौटे तो उन्होंने पाया कि उनका थैला और बिस्तर थोड़ा-सा खिसकाकर हट्टा-कट्टा चरन गोसाईं अपनी चादर बिछा रहा था। आनंद मोहन सराउगी इस पर बुरी तरह नाराज हुए। जबर्दस्ती उन्होंने गोसाईं की चादर को झटका देकर खींच लिया।

जहां चादर बिछी थी उस जगह की तुलना में उसके पास की जगह कोई खास बुरी नहीं थी, बल्कि दोनों जगहें एक-सी ही थीं। दोनों ही जगह धूल और बालू में शरीर को लिथड़ना था और दोनों ही जगह गुजरने वालों के पैरों की ठोकर लगनी ही थी। पर काल्पनिक बेहतरी का अनुमान लगाकर पहली जगह से कब्जा कोई नहीं छोड़ना चाहता था। बल्कि वापसी में जब हम लोग इस अधिकार-मोह का मजाक उड़ा रहे थे तो सराउगी ने बहुत झेंपकर बताया कि उस जगह कब्जा पा जाने के वाट वे रात-भर लघुशंका रोके लेटे रहे थे, क्योंकि उन्हें डर था कि उनके उठते ही गोसाईं फिर उसी जगह आ जाएगा।

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