लोगों की राय

कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

2 पाठक हैं

कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...

कहानी की शुरुआत


"चल दिए नंदलाल?" सड़क के किनारे की धूल पर थोड़े से पौधे रखकर बैठे माली ने आवाज दी और उठकर खड़ा हो गया। नंदलाल नाई झुटपुटा होते ही अपनी दुकान बढ़ा देता था। बांस के टट्टर पर पांलिथीन की बोसीदा चादर को ईंट के टुकड़ों से दबाकर बनाया मंडप जैसा वहां खड़ा रह जाता था अपनी चार बहुत पतली टांगों पर सधा हुआ। आम की लकड़ी की एक अनगढ़ कुर्सी और कबाड़ी बाजार से खरीदी एक मेज अगले रोज तक के लिए खाली हो जाती थी।

पौधे बेचनेवाला माली नंदलाल के जाने के बाद उसी मेज पर अपने पौधे सजा लेता था। बारिश के मौसम में टमाटर, गोभी, बैंगन और प्याज के पौधे और सर्दियां शुरू होने पर कई तरह के क्रोटन, कुछ देशी गुलाब, मोरपंखी वगैरह। इधर उनके तीन पौधे रबर के भी जटा लिए थे। वह जानता था कि बड़े बंगलों में अब रबर का पौधा खासी शान से सजाया जाता था। उसके ग्राहक बड़े बंगलोंवाले कभी नहीं होते थे। अक्सर दफ्तर से लौटनेवाले बाबुओं की भीड़ वहां सब्जी खरीदने के लिए रुकती थी। उन्हीं में से कुछ लोग उससे देशी गुलाब या सदाबहार के पौधे ले जाते थे और बहुत लालच के साथ रबर के ये पौधे भी देखते थे। माली जानता था कि उन्हीं में से कुछ अब क्रोटन भी खरीदने लगे थे और निश्चय ही वे रबर का पौधा खरीदने की दिशा में बढ़ रहे थे।

नंदलाल को अपनी दुकान के इस इस्तेमाल से एतराज कभी नहीं हुआ। बल्कि वह खुश ही था कि माली ने उसे सुदर्शन के एक पौधे के साथ दो अधमरे से पौधे देशी गुलाब के भी मुफ्त दिए थे जो अब खासे हरे-भरे हो आए थे। मगर उसे गंदगी पसंद नहीं थी। माली जाते वक्त पौधों से झड़ी हुई खादमिली मिट्टी व पौधों की बासी पत्तियां मेज पर छोड़ जाता था।

"साले, कूड़ा मेज पर छोड़ा तो अच्छा नहीं होगा।" नंदलाल ने आईना, ब्रुश, कंघी, साबुन, कैंची और सस्ती क्रीम जैसी बीसियों चीजों से भरा थैला साइकिल पर लटकाते हुए धमकाया।

माली हंसने लगा। उसने अपनी सफाई-पसंदगी का सबूत देते हुए मेज पर अपना अंगोछा रगड़ना शुरू कर दिया। नाई को थोड़ा और खुश करने के लिए बोला, "बीड़ी पीते जाओ।"

"बीडी? साली बदबू करती है। मैं सिगरेट पीता हूँ।" कहकर नंदलाल ने चलते-चलते कस की पीठ में लगे उस हिस्से को कील सहित निकाल लिया जिस पर गर्दन टिकाकर लोग उससे हजामत बनवाते थे।

उसकी यह कुर्सी तो बिल्कुल मामूली किस्म की थी। पर उसकी पीठ पर नंदलाल ने लकड़ी के दो छेददार टुकड़े बढ़ई से ऊपर-नीचे जड़वा लिए थे। इन छेदों में वह लकड़ी का ही ऐसा अर्धचंद्र अटका देता था जिसके नीचे एक लंबी छड़ी जैसी लगी थी। इस छड़ी में कुछ सूराख भी थे जिनमें एक कील घुसा देने पर वह अर्धचंद्र चाही हुई ऊंचाई पर रोका जा सकता था।

दुकान अकेली पाकर एकाध बार कोई शरारती बच्चा यह अर्धचंद्र चुरा ले गया था। इसीलिए अब नंदलाल बाकी चीजों के साथ इसे भी थैले में डाल लेता था।

माली ने अपने पौधों को मेज पर सजाने में जल्दी नहीं की, बल्कि नंदलाल के थोड़ी दूर निकल जाने तक वह इस तरह मेज साफ करता रहा जैसे पौधों को मेज पर रखने में उसकी कोई खास रुचि न हो।

अभी धूप थोड़ी बाकी थी। चौराहे की तरफ खड़ी तीन मंजिली नसिंग होम की इमारत की समूची दो मंजिलें धूप में थीं। दाईं तरफ के मकानों की कतार के ऊपरी हिस्से पर भी धूप की पट्टी चिपकी थी।

बाजार लगने का यही वक्त था। सड़क के उस पार हरिराम पुरानी साइकिल पर गोभियों के दो थैले आगे लटकाए और एक बहुत ऊंचा पिरामिड कैरियर पर साधे आ गया था। साइकिल खड़ी करके उस पर से गोभी के ढेर उतारने का काम खासा मुश्किल होता था, क्योंकि जरा-सा चूकने पर साइकिल तांगे के घोड़े की तरह अगला पहिया ऊपर उठा लेती थी। हर रोज यही होता था। यूसुफ मियां उसी के करीब साग फैलाकर बेचते थे और दूसरों से काफी पहले ही आ जाते थे। दूसरों को परेशानी में डालनेवाले हरिराम को बेहतरीन गालियां सुनाते हुए अक्सर पिरामिड की मुसीबत से वही बचाते थे।

आज वे आए नहीं थे, उलार होती साइकिल साधने के लिए हरिराम को कई बार जोर लगाना पड़ा, फिर भी गोभियों का वह ढेर गिर ही पड़ा। हरिराम झेंपकर हंसने लगा।

माली ने अंगोछा कंधे पर डाला और सड़क पार करते हुए ऊंची आवाज में बोला, “अरे, क्यों मरे जा रहे हो! आ रहा हूं! अकेले नहीं होगा..."

एक और बयान


कहानी अक्सर शुरू आपकी मर्जी से होती है लेकिन आगे अपनी मर्जी से मुड़ने लगती है जैसा कि इस कहानी में हुआ। यूसुफ मियां बिना किसी पूर्व योजना के गायब हो गए। क्यों गायब हो गए? बीमार हो गए होंगे। रास्ते में दुर्घटना हो गई होगी। किसी और काम में फंस गए होंगे या फिर कोई वजह होगी जिसकी मैंने भी कल्पना न की हो। अगर वजह सचमुच ऐसी हुई तो कहानी में बिल्कुल ही अप्रत्याशित परिवर्तन हो सकता है।

कहानी का पहला सूत्र


अब यहां यह भी बता दूं कि यह कहानी सूझी कैसे। कौन-सी वह बीज घटना थी जिसका असर धुल नहीं पाया और काफी अंतराल के बाद भी जो एक संपूर्ण कथा-जगत् का अनुभव देती रही।

जिस बाजार का ऊपर मैंने जिक्र किया है उसके चरित्र का अध्ययन बाद में दूंगा पहले उस बीज घटना का बयान कर दूं।

बीज घटना


कालोनी में फिरनेवाले मजदूरों के बारे में मेरी धारणा बहुत अच्छी नहीं है। मुझे लगता रहा है कि वे खासे कामचोर और बेईमान हैं। मौका मिलने पर आपको बड़ी आसानी से ठग सकते हैं। बल्कि मेरी बीवी का खयाल है ये लोग चोर भी होते हैं। इसीलिए उनसे घर में कोई छोटा-मोटा काम लेने में वह खासी सावधानी बरतती है।

एक बार पीछे के लॉन में फालतू ईंट, पत्थर और कूड़ा हटाने के लिए उसने किसी को पांच रुपये दिए। उसका खयाल था कि वह आधा दिन तो लगाएगा ही पर उस बेईमान ने आधे घंटे में ही सफाई कर दी और पांच रुपये वसूलने खड़ा हो गया। मेरी बीवी को इतना गुस्सा आया कि वह उसे चार रुपये भी देने को तैयार नहीं थी पर वह अकड़ने लगा।

इसी के कुछ दिन बाद घर में चोर आ गया। चूंकि कुत्ते भौंक पड़े इसलिए वह बाहर टंगा एक फटा कंबल ही ले जा पाया। चोर के पैरों के निशान मिट्टी में ही नहीं, दीवार पर भी थे। हम लोगों ने वे बहुत बड़े-बड़े निशान किंचित् भय से देखे। मेरी पत्नी ने पूरे विश्वास से घोषणा की कि यह चोर वही बदमाश मजदूर था कयोंकि उसके पैर के पंजे भी बड़े-बड़े थे और फिर वह हर तरफ देख क्यों रहा था?

तो इसी सच्चाई को जानते हुए हमने फैसला किया कि पिछले साल जिससे हमने दो रुपये बोरी गोबर की खाद ली थी उससे इस बार नहीं लेंगे। वह जरूर बेईमानी करता होगा। पास के दूधिए से गोबर की खाद लेने के लिए मैंने कुछ बोरियां डिक्की में रख लीं। मोटर को निकट से छूने के लालच में दूधवाले के बच्चे बड़ी खुशी से बोरियों में खाद भरने लगे।

उस वक्त धूप काफी तीखी थी। जहां मैं खड़ा था उसी के पास नंदलाल का वह हजामत बनानेवाल सैलून था। नंदलाल दोपहर का खाना खाने जा रहे था। मुझे धूप से तंग होते देखकर उसने बड़ी उदारता से फूस की छत के नीचे आकर हजामतवाली कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया। मैं बैठा तो नहीं पर साए में जरूर आ गया।

दूधवाले के बच्चे बहुत प्रसन्नता के साथ बोरों में खाद भर रहे थे। मैं जानबूझकर बड़ी बोरियां ले गया था ताकि दो रुपए में उम्मीद से ज्यादा ही खाद भरवा सकूँ।

ऊब से बचने के लिए मैंने आसपास निगाह दौड़ाई।

नंदलाल की दूकान के पास ही एक खोखा और था जिसके सामने एक पंप, तसले में गंदला पानी और कुछ रिंच रखे थे। बाकी औजार, कुछ कटे-फटे टायर और दो-तीन साइकिलों के पंजर खोखे में थे। यह साइकिल की मरम्मत की दुकान थी।

इसी दुकान के सामने बैठे दो-तीन लोगों ने बड़े उपहास के साथ आवाज दी, "अमां, ये कबाड़ कहां से ले आए?"

मैंने देखा एक आदमी बच्चों की तीन पहिएवाली, दो हिस्सों में टूटी साइकिल लिए खड़ा है।

ललकार सुनकर उसने तीन पहियोंवाली साइकिल के दोनों टुकड़े जमीन पर रख दिए और बोला, "कबाड़ नहीं है। इसके पहिए देखो। एकदम नए हैं। ग्रीस-वीस पड़ जाएगी तब देखना। इन्हीं पहियों के लिए खरीदी है।"

बोलते हुए वहीं बैठकर वह उन दो टुकड़ों को जोड़कर दिखाने लगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book