लोगों की राय

कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

2 पाठक हैं

कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


"आइए रामेश्वर बाबू!" मैंने उन्हें पहले देख लिया, “मांगें तैयार हो गई हैं। गंगाराम को भी दिखा लीजिए।"

गंगाराम अजीब आदमी था। वह किसी न किसी मांग में हमेशा ऐसा पहलू खोज लेता था, जिससे उसे नुकसान हो रहा हो। इस अनुसंधान के बाद वह बहुत ज्यादा शोर मचाता था और यूनियन तोड़ देने की धमकी देने लगता था। हमें उसे मनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। इसके बावजूद संगठन के काम में हमें सबसे ज्यादा मदद उसी से मिलती थी। कभी-कभी लगता था, हम सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण वही है।

रामेश्वर दो पल ठिठके, फिर बोले, “गंगाराम मर गया, चलिए उठिए।"
"क्या? क्या हुआ गंगाराम को?"

रामेश्वर ने जवाब नहीं दिया। दरवाजे की तरफ मुड़ते हुआ कहा, "चलिए, चलिए।"

इससे आगे कुछ बेकार था। सीढ़ियाँ उतरकर हम नीचे आए। बड़े दरवाजे पर एक मोटर खड़ी थी। रामेश्वर मोटर का दरवाजा खोलकर खड़े हो गए।

बिजलीघर में दुर्घटना हो गई थी बहुत शक्ति की बिजली की चपेट में आकर गंगाराम जल गया था। उसके पैर के जूते में सुराख करती हुई बिजली की धारा फर्श में समा गई थी। जब तक कोई कुछ समझे वह मर चुका था। लाश मुर्दाघर जा चुकी थी और उसकी लगभग अर्द्धविक्षिप्त हो चुकी पत्नी इमारत के बाहर सीढ़ियों के पास बैठी थी, अपने गुमसुम तीन छोटे बच्चों के साथ।

रामेश्वर ने गंगाराम की बीवी को घर पहुंचाया और तब हम लोग अस्पताल की तरफ चले।

जब वह वापस लौटे तो शाम हो चुकी थी। परिषद का सचिव सीढ़ियों के पास खड़ा था, शायद काफी देर से।

अब मेरा ध्यान गया, जिस मोटर पर हम लोग गए थे, वह सचिव की थी। सचिव जरूर वहां इस तरह अपनी मोटर के इस्तेमाल पर देर तक चीखता रहा होगा, क्योंकि परिषद का दफ्तर बंद होने का वक्त होने पर भी वहां सन्नाटा था।

मोटर से पहले मैं उतरा होता तो स्थिति शायद ऐसे न बिगड़ती। पहले रामेश्वर ही उतरे, अपनी मुसी हुई खाकी वर्दी पहने। अपनी गाड़ी से बाहर आते रामेश्वर से ज्यादा वह उस वर्दी पर चिढ़ा होगा। बहुत ऊंची आवाज में वह चीखा, “कैसे हिम्मत पड़ी तुम्हारी मेरी कार ले जाने की?"

अब तक वह पथरीली मुस्कुराहट रामेश्वर के चेहरे पर थी, पर मैंने देखा, किसी बेहद फुर्तीले छापामार की तरह देखते-देखते वह मुस्कुराहट फरार हो गई। उनका छोटा-सा शरीर तनकर हल्के से काँपा। उन्होंने शब्द खोजते हुए दो क्षण उसे घूरा और अपनी सख्त आवाज में बोले, “फूंक दूंगा! कलेजे में आग लगी है!..."

सचिव शायद एक क्षण में स्थिति की गंभीरता समझ गया, क्योंकि उसका खुला हुआ मुँह एकदम बंद हो गया। उस वक्त तक मैं और चार और साथी मोटर से उतर चुके थे। जाने कैसे रामेश्वर के इतने शब्द पूरे होते न होते चतुर्थ श्रेणी की बीसियों वर्दियां वहां प्रकट हो गई थीं।

सचिव को दुर्घटना की सूचना हो गई थी। उसे उम्मीद थी कि अपनी गाड़ी के ऐसे अनधिकृत प्रयोग पर क्षोभ दिखाकर वह कर्मचारियों की पहली उत्तेजना को दबा लेगा।

मैंने रामेश्वर का कंधा दबाया और अंदर ले चला। उनका शरीर तप रहा था और साँस बहुत तेज चल रही थी। कुर्सी पर बैठकर उन्होंने पीछे सिर टिका लिया और आँखें बंद कर लीं। थोड़ी देर में शायद सो गए या उत्तेजना के कारण अचेत हो गए।

इसके बाद जब वे जागे तो वह मुस्कुराहट वहां हमेशा जैसी मुस्तैदी से मौजूद थी।

गंगाराम के न रहने का असर हमें अब महसूस हो रहा था। लगता था, यूनियन के जाने कितने कागज खो गए हैं। दफ्तर का सामान बेतरतीब हो गया है और यूनियन के बहुत-से कार्यकर्ता कहीं गायब हो गए हैं। कई रोज हम इस खालीपन से लड़ते रहे। इसी बीच हमारे महासंघ को एक और झटका लगा। हमें सूचना मिली की दूसरी समानांतर यूनियन को मान्यता देने के सवाल पर सदस्यता की पड़ताल होगी।

इस गलत कार्यवाही का जवाब हम बहुत सख्त देंगे-हमने घोषणा की। हमने फैसला किया कि हम इस सदस्यता-पड़ताल का बहिष्कार करेंगे। कर्मचारी संघ के अधिकारियों पर हमले के विरुद्ध संघर्ष इतना तेज होगा कि प्रशासन कांप जाएगा।

प्रशासन ने जवाबी हमला हमारी अपेक्षा से कहीं ज्यादा जल्दी किया। अगले रोज जब हम आए तो पाया, यूनियन के दफ्तर पर ताला पड़ा था और दरवाजे पर नोटिस चिपका था कि सदस्यता-पड़ताल से बाहर होने के कारण समानांतर यूनियन को मान्यता दे दी गई है। मैं जानता हूँ, गंगाराम होता तो अब तक ताला टूट चुका होता। उस शाम जिस वक्त हम संवाददाताओं से बात कर रहे थे, किसी ने मुझे बताया, मुख्यालय में आग लग गई है।

"अच्छा हुआ", मैंने विद्रूपता से कहा। अखबार वालों से बातचीत खत्म होने तक मैं मानसिक रूप से इतना थक गया था कि घर चला गया। आग की बात लगभग भूल ही गया। बस, इसी एक रात में सब कुछ हो गया।

रामेश्वर को गिरफ्तार कर लिया गया था। न सिर्फ गिरफ्तार किया गया था, बल्कि पुलिस उन्हें पूछताछ के लिए किसी अनजानी जगह ले गई थी।

इसके बाद मेरी तीसरी मुलाकात बहुत कोशिशों के बावजूद तब तक नहीं हुई जब तक मुझे मल्लावां में उनके होने की खबर नहीं मिली।

मल्लावां की मेरी तीसरी यात्रा यही थी। संदेश देने वाले ने खास कुछ नहीं बताया था, लेकिन मुझे गहरी आशंकाओं ने घेर लिया था। मुझे लग गया था कि मल्लावां में मैं कुछ न कुछ ऐसा देखने जा रहा हूं, जो बहुत सुखद नहीं होगा।

रामेश्वर आंगन में एक चारपाई पर इस तरह लेटे मिले, जैसे उसी तरह कोई उन्हें यहां तक लाकर रख गया हो। उनकी चिरस्थायी खामोशी और मुस्कुराहट के साथ शरीर देखकर कोई भी विश्वास कर सकता था कि उन्हें एक लंबे समय तक यातना दी गई है।

"मगर क्यों? उन्होंने यह क्यों किया?" मैंने आजिजी से पूछा।

जवाब में उन्होंने सिर्फ एक सवाल-भर ही पूछा, "वहां सब ठीक?"

लगा, खांसी आएगी, पर आई नहीं। अभी मैं गर्मी का सामना करने की तैयारी कर रहा था कि तभी औरतों के गाने की आवाज आनी शुरू हो गई-

रामेश्वर ने आसमान की तरफ देखा। सीने में कुछ ऐसा कंपन हुआ, जैसे खाँसी आने वाली हो-पर खाँसी के बाजय फिर हिचकी-सी आकर रुक गई।

उतरती शाम की तरफ उछाली जाती रस्सियों की तरह गीत अब बहुत दिशाओं से सुनाई देने लगा था।

ठीक इसी वक्त मैंने देखा, रामेश्वर बाबू के होठों की वह मुस्कुराहट वहां से गायब होने लगी-

'नहीं रामेश्वर बाबू, नहीं!' मैंने कहना चाहा, पर उस गायब होती मुस्कुराहट के साथ खांसी की एक और कोशिश के बाद होठों की बाईं कोर से रक्त की जो रेखा फूटी, उसने मुझे चुप करा दिया।

हो जाने दो। उसे फरार हो जाने दो। हाथ में ढाल और तलवार-मल्लावां माई राजा से बदला लेगी न?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book