कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
प्रदर्शन समाप्त होने के बाद पहला मौका पाते ही मैंने रामेश्वर बाबू को धर
लिया, "कहां थे आप तीन दिन? यहां तो सारा काम ही चौपट हो रहा था।"
रामेश्वर ने जवाब नहीं दिया, सिर्फ मेरे चेहरे की तरफ देखा, पत्थर पर खोदकर
बनाई गई अपनी सख्त मुस्कुराहट के साथ और सड़क की दूसरी तरफ खड़ी एक मोटर की
तरफ इशारा किया। उन्हें घूरते हए खीझकर मैंने पूछा, "क्या है वहां?"
"चलना है।"
"कहां चलना है? बात क्या है?" मेरे सवाल बेकार थे। वे और कुछ बोलने वाले नहीं
थे। दुबारा उन्होंने जिस तरह इशारा किया, उसके उत्तर में समाने खड़ी मोटर में
जा बैठने के अलावा कोई उपाय भी नहीं था। मोटर ड्राइवर मेरा परिचित था। मोटर
ड्राइवर यूनियन का सचिव था, मगर मोटर विभाग की नहीं थी। मुझे लगा, शायद किसी
कर्मचारी के साथ बिजलीघर में दुर्घटना हो गई है। मगर मोटर बिजलीघर नहीं गई,
जिला अस्पताल के पीछे घूमकर पास बनी एक वीरान-सी छोटी इमारत के सामने रुक गई।
वह मुर्दाघर था। इसके बाद के मेरे सारे अनुमान गलत साबित हो गए। और यहां से
बहुत-बहुत शर्मिंदा होने की बारी मेरी थी।
रामेश्वर की बेटी को बच्चा होने वाला था। प्रसव में कुछ गड़बड़ी हो गई थी और
वे बेटी को अस्पताल ले आए थे। अस्पताल में भी फायदा कोई नहीं हुआ। बच्चे सहित
बेटी की मृत्यु हो गई और सुबह उसे मल्लावां ले जाने के बजाय रामेश्वर ने
मुर्दाघर में रख दिया था। इतने काम में उन्हें प्रदर्शन के समय पहुंचने में
थोड़ी-सी देर हो गई थी।
आप कल्पना कर सकते हैं ऐसे व्यक्ति की, जिसे परिवार से लगाव हो और वह बेटी का
शव मुर्दाघर में छोड़कर जुलूस में शामिल हो जाए और उसके चेहरे पर एक शिकन नजर
न आए? जब आप उसे जुलूस में देर से आने के लिए जलील करें, तो वह अपनी हमेशा
जैसी पथरीली मुस्कुराहट लिए लज्जित होने का नाटक भी करे ताकि आपको संतोष हो
सके?
ऐसा आदमी आतंकित करता है, मुर्दाघर के चबूतरे पर लगन के साथ बेटी की लाश पर
सफेद कपड़ा लपेटता हुआ वह, अगले कई रोज, मुझमें एक खौफ बनकर समाया रहा था।
लाशगाड़ी मल्लावां पहुंचने और शवदाह का प्रबंध होने तक मैंने रामेश्वर बाबू
के चेहरे पर जो पथरीली मुस्कुराहट चिपकी देखी थी, वह सहसा उस वक्त गायब हो गई
जब उन्होंने बेटी की चिता में आग दी। उस वक्त सूरज का पीलापन काला पड़ने लगा
था। सूरज की उस धुआई काली-सी रोशनी और चिता में लगाई जाती आग की चमक में
मैंने देखा, रामेश्वर बाबू के चेहरे की वह पथरीली मुस्कुराहट गायव थी और वहां
एक मुट्ठी राख-सी फैली थी, जैसे किसी फूस के घर में आग लगने के बाद वहां वही
बच गई हो, दहकती हुई लेकिन बेरंग। चिता में आग लगाते वक्त पत्थर की उस
मुस्कुराहट का गायब होना एक डरावना अनुभव था। आपको भी एक क्षण के लिए लगता,
जैसे रामेश्वर की वह मुस्कुराहट फरार हो चुकी हो और जिस वक्त वे चिता में आग
दे रहे थे, उस वक्त वह कहीं और आग लगा रही हो।
यह मल्लावां की मेरी दूसरी यात्रा थी। इस बार मैं मल्लावां माई नहीं जा सका।
अवसर ऐसा नहीं था। दूसरे दिन सोमवार नहीं था, लेकिन शाम को गाड़ी पकड़ने के
लिए स्टेशन आते वक्त लगा, आसपास की खामोशी की खुश्क परत फोड़कर औरतों का
हुजूम बाहर आने वाला है, गाते हुए : असुर दानव ने शीतला माई को चिट्ठी लिखी
है मैं तुमसे शादी करूंगा-शीतला माई के हाथ में ढाल और तलवार थी-
क्या यही है वह पथराई हुई मुस्कराहट, जो सतह फोड़कर धीरे-धीरे बाहर आती है,
आसपास की गर्द की दरख्तों के रहस्यजाल को घेरती हुई अस्पष्ट जंगली आवाजों की
गुंजलक लिए हुए? जैसे वह गायन नहीं, ऐंठी हुई रस्सी के गुच्छे हों, जो अदृश्य
प्राचीरों पर उछाले जाएंगे। और फिर उनसे होकर तलवारें और ढालें कंगूरों पर
चढ़ जाएँगी...
उनचास घोड़े और पचास हाथी लेकर असुर दानव आया। देवी के हाथ में तलवार और ढाल-
मल्लावां माई भी फरार हो गई थी। चिता में आग देते वक्त रामेश्वर बाबू की
मुस्कराहट की तरह। असुर दानव आया था उनचास घोड़े और पचास हाथी लेकर।
मल्लावां माई की डोली उठ रही थी। दुवली-सी घोड़ी पर तलवार बांधे, कलगीदार
साफा पहने दूल्हा डोली के साथ था। तभी असुर दानव आया था।
“ओ रे कमीने, हराम की औलाद कहारो, डोली उधर मोड़ो, हवेली की तरफ!" राजा
सूर्यभान सिंह के घुड़सवारों ने चिल्लाकर हुक्म दिया।
कहारों ने अचकचाकर देखा और गाँव वालों में भगदड़ मच गई।
"राजा का हुक्म है, मालूम नहीं?" सिपाही फिर चिल्लाए।
जैसे लताओं से घिरी गुफा से सिंहनी बाहर आती है वैसे मल्लावां माई डोली का
पर्दा चीरकर बाहर आ गई। ठोड़ी तक लटकी लाल चूनर के भीतर से चिनगारियाँ-सी
छूटी, “कौन कहता है, डोली राजा की हवेली जाएगी! डोली आगे बढ़ाओ!"
"ठीक तो है। डोली हवेली क्यों जाए?" दूल्हे ने फैसला कर लिया, "क्या हमारी
इज्जत नहीं है?"
सरदार सिपाहियों से गरजकर बोला, “इसकी ऐसी मजाल! पकड़ लो इसे और घसीटकर हवेली
ले चलो!"
सिपाही टूट पड़े। बारह बाराती और एक दूल्हा। तलवार और लाठियों से लड़े। असुर
दानव के उनचास घोड़ों और पचास हाथियों ने आखिर दूल्हे सहित जब बारह बारातियों
का सिर काटा उस वक्त तक धू-धू जलती चिता में मल्लावा माई बैठ चुकी थी।
सरदार चिल्लाया, "उसे जल्दी बाहर खींचो।"
"हाथ मत लगाना मुझे! पत्थर हो जाएगा जो हाथ लगाएगा! और कह देना राजा सूर्यभान
सिंह से, उसका वंश नाश हो जाएगा।" मल्लावां माई ने गरजकर कहा। चिता खूब जोर
से जल रही थी। लप-लप करती लपटों के साथ जैसे बहुत-सी तलवार नाच रही हों।
देवी लड़ते-लड़ते मठ में समा गई। बच रहा उनका डरावना अभिशाप।
राजा सूर्यभान सिंह ने हवेली में आराम से गद्दे पर लेटे-लेटे सब सुना।
उगालदान में पीक थूकी और बड़ी-बड़ी मूंछों को उछालकर देर तक हँसता रहा। उसकी
सुर्ख आँखों में आँसू आ गए हँसी के मारे।
अगले दिन वह सज-धजकर घोड़े पर निकला तो बोला, “आज मेरा घोड़ा उस औरत की चिता
पर मूतेगा।"
विजेता की तरह वह गाँव में घूमता रहा। दोपहर गन्ने के खेतों की तरफ से निकला,
जहां जमीन में गड्डा बनाकर बड़े-बड़े कड़ाहों में गुड़ बन रहा था। वह किनारे
आकर खड़ा ही हुआ था कि जाने क्या हुआ कि घोड़ा उछला और राजा लढककर सीधे खौलते
गुड़ के कड़ाह में जा गिरा। फदफदफद करके बड़े-बड़े बुलबुले धुआँ छोड़ रहे थे
जब राजा सूर्यभान सिंह को लकड़ियों के सहारे कड़ाह से बाहर निकाला गया।
अगले हफ्ते राजा का बेटा पलंग पर मरा पाया गया। उसका बदन नीला था। उसकी रजाई
में दो वालिश्त का सुर्ख सिंदूरी साँप था। कहते हैं, मल्लावां माई ने अपनी
चूनर की एक धज्जी फाड़कर वहां फेंकी थी, जो साँप बन गई थी।
मल्लावां खास की औरतें मानती हैं कि मल्लावां माई उस दिन चिता में स्वयं नहीं
मरी थीं। उन्होंने अपनी माया जलाई थी और खुद अलोप हो गई थीं, राजा को दंड
देने के लिए।
मल्लावां माई फरार हुई थीं। रामेश्वर बाबू की मुस्कुराहट की तरह। इस
मुस्कुराहट को मैंने एक बार और ठीक वैसे ही फरार होते देखा था।
वे बहुत तकलीफदेह गर्मी के दिन थे। दफ्तर की खिड़कियां भरसक बंद किए नीम
अंधेरे में हम लोग मांग-पत्र तैयार कर रहे थे। तभी रामेश्वर आए। सहसा अंधेरे
में आकर उन्होंने मुझे खोजने के लिए आंखों पर जोर डाला।
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