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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...

एक बंदर की मौत


दूर से सुनने वाले को वह रोने की आवाज भी लग सकती है। यह जिज्ञासा उस गली में रहने वाला कोई नहीं करता कि वह गाने की आवाज है या रोने की। गली में रात कोई एक बजे से खामोशी होती है तब वह आवाज साफ सुनाई पड़ती है। वैसे वह आवाज रोने की नहीं, गाने की ही है। एक बूढ़ी, बेहद दुबली औरत गाती है। गली के तीसरे अधगिरे मकान की ऊपरी मंजिल पर एक कमरा है और कमरे के आगे टिन का सायबान। टिन रोकने वाली लकड़ियों को लंबे अरसे में कीड़ों ने खाया है और उनमें से एक किसी ममी की टांग की तरह लटक आई है। सायवान के बीचोबीच फर्श पर एक बड़ा-सा सूराख है, जिससे नीचे के कमरे के अंदर झांका जा सकता है। इसी सूराख के पास बैठकर वह गाती है।

वह क्या बनाती है, क्या खाती है, कोई नहीं जानता, गोकि इस गली में रहने वाले हर किसी से हर किसी का सीधा सरोकार है, फिर भी उस बूढ़ी औरत की तरफ से हर कोई उदासीन रहता है। खुद उसका बेटा मुचडू भी। शायद ही कभी किसी ने मुचडू को ऊपर जाते देखा हो।

सिर्फ एक बार लोगों का ध्यान उस औरत की तरफ गया था। पर वह बहुत पुरानी बात है, शायद तीस-बत्तीस या उससे भी ज्यादा। वह छोटा-सा दुमंजिला मकान उस वक्त भी ऐसा ही था। नीचे के कमरे में खुलने वाला छत का वह दो बालिश्त दायरे का सूराख भी ऐसा ही था। पर उस वक्त उसमें एक अलग ही किस्म की जिंदगी हुआ करती थी। कुछ मजदूर सुबह-शाम आते थे। वे सुबह भरी हुई बोरी लाते थे और शाम को ले जाते थे। बोरी में समूची अरहर के दाने होते थे। शाम को जब वे ले जाते थे तो उसी बोरी में अरहर की दाल होती थी। एक बड़ी बोरी में अरहर के दानों के छिलके होते थे, जिन्हें कोई और ले जाता था और एक छोटा थैली में दानों के टूटे कण होते थे।

दरअसल ऊपर की मंजिल पर उस औरत ने पत्थर की एक चक्की लगा रखी थी। इसी में वह सारे दिन अरहर के दाने मुट्ठी में भर-भरकर डालती थी और चक्की के चारों और छिलके और दाल का ढेर इकट्ठा होता जाता था। इसे वह धीरे-धीरे फर्श पर बने उस बड़े-से सूराख से नीचे गिराती जाती थी। गिरने पर दाल से छिलके अलग हो जाएं, इसके लिए लगातार किसी अंगोछे को दो वच्चे हिलाते थे। पर बच्चे दो के बजाय कुछ ज्यादा ही इकट्ठे हो जाते थे।

औरत चक्की चलाते वक्त बड़ी तन्मयता से पुराने गीत गाती थी-मैं कितने मन अनाज कूटूं, कितने मन पीसूं मेरे भैया, कितने मन की रसोई पकाऊँ। सास मांजने के लिए बर्तनों का ऊँचा ढेर दे देती है-

यहां तब आसपास वाले लोगों को मालूम था कि वह औरत गाती है। पर उसके बाद एक दिन वहां एक भारी हंगामा हो गया। पड़ोस के कुछ बच्चे उस औरत के अपने बच्चे के साथ मिलकर छत के छेद से नीचे फर्श पर गिरती दाल पर हवा ही नहीं करते थे, वहां खेलते भी थे। इसी खेल में एक बच्चे ने चक्की के अर्धचंद्राकार छेद में एक लोटा पानी डाल दिया। जाहिर है, उस औरत के लिए यह कोई खुश होने वाली घटना नहीं थी, क्योंकि न सिर्फ बहुत-सी दाल का नुकसान हुआ था बल्कि चक्की भी बिना सुखाए-साफ किए काम लायक नहीं रह गई थी। औरत का चेहरा बहुत तेजी से बिगड़ा। उसके दांत दिखाई देने लगे और बाल जैसे अपनी जड़ों पर खड़े हो गए थे। शरारत करने वाला बच्चा अभी तक हंस रहा था पर अब रोने लगा। औरत ने गुस्से से भरकर उसके कानों के पास एक जोरदार थप्पड़ मारा।

थप्पड़ मारने के बाद औरत समझ नहीं पाई कि यकायक क्या हुआ? वह दुबला नन्हा बच्चा बेतहाशा चीखता हुआ एक क्षण दाल गिराए जाने वाले सूराख में अटका दिखा, फिर एकदम गायब हो गया।

औरत सहमकर जीने तक आई और फिर ठिठक गई। गली में इस तरह शोर शुरू हो गया था जैसे वहां किसी ने बहुत-से जंगली जानवर एक साथ छोड़ दिए हों। मुहल्ले की गलियों की एक खास सिफत होती है। जहां आम तौर पर वहां ज्यादा भीड़ नहीं दिखती और ज्यादातर लोग अलसाए और बेजान-से लगते हैं, वहीं छोटी से छोटी घटना पर वे बेहद फुर्ती और तत्परता दिखाते हुए भारी तादाद में जमा हो जाते हैं, यही हुआ।

इसके बाद पुलिस ने तो कोई खास कार्यवाही नहीं की, पर उस छत पर चक्की की आवाज भी बंद हो गई और गाने की आवाज भी। वह औरत कहीं चली गई। उसके नन्हे बेटे मुचडू को शायद न तो उसके वहां होने से कोई खास सरोकार था और न ही उसके गायब हो जाने से। जब सब बच्चे छत के छेद से गिरती दाल पर अंगोछे से हवा करने का मजा ले रहे होते थे, मुचडू गली के मोड़ के धोबी की इस्त्री में कोयले सुलगाता होता था या गली के मुहाने पर अड़ी हुई सड़क के श्याम सुंदर हलवाई के चबूतरे पर बैठा इमरतियों के लिए उड़द का आटा घोटता रहता था। मुचडू के लिए वे सब उस काम से बेहतर थे जो उसकी मां करती थी। मां का खाना भी कुछ अजीब-सा था जो मुचडू को कभी पसंद नहीं आया। मां जिस अरहर से चक्की पर दाल तैयार करती थी, उसी का एक हिस्सा उसे मेहनताने में मिल जाया करता था। वह यही दाल एक बर्तन में चढ़ा देती थी और पकते वक्त उसमें आटे की टिकियां बनाकर डालती जाती थी। बासी होने पर यह खाना उसे और ज्यादा लजीज लगता था।

पर मुचडू ने शायद ही कभी वह खाया हो। उसकी मां को भी इस बात का मलाल कभी नहीं हुआ। दरअसल मुचडू और उसकी मां के संसार बहुत अलग हो गए थे। कभी-कभी बहुत पढ़ी-लिखी और खाती-पीती दुनिया के परिवारों में भी यह होता है। वाल्दैन की दुनिया से बेटे की दुनिया कटकर अलग हो जाती है, पर अक्सर यह घटना उम्र कुछ ज्यादा होने पर होती है। मुचडू और उसकी मां के संसार तब से अलग हो गए थे जब से मुचडू ने थोडा-सा चलना और बोलना सीख लिया था। उसे लगता था कि मां का काम भी घटिया किस्म का है और उसका बनाया खाना भी। वह गाती है या रोती है, इस पर भी उसने कभी ध्यान नहीं दिया।

मां गायब हो गई तब भी मुचडू को कोई खास फर्क नहीं पड़ा था। और जब वह उसी तरह बिना आहट वापस लौट आई तब भी मुचडू पर कोई असर नहीं दिखाई दिया। मचडू की उम्र में जरूर इजाफा हो गया था और जो घुटन्ना अपने नंगे बदन पर वह पहनता था, उससे बाहर उसके जिस्म के हिस्से अनुपात से ज्यादा बड़े हो गए थे। इतने बरसों में मकान भी कुछ ज्यादा पुराने हो गए और गली भी। गली में जडी गई ईंटें जगह-जगह से गलकर वहां गड्ढे बन गए। पर सबसे ज्यादा बड़ा परिवर्तन कुछ दूर से ही दिखाई दे जाता था। घरों में अब बिजली का इस्तेमाल ज्यादा था और हर बाशिंदे ने पानी के अपने नल अलग लगवा लिए थे।

सरकारी भाषा में इस विकास ने गली की शक्ल कुछ अजीब ही कर दी थी। गली के सिरे पर जो बिजली का खंभा था उस पर सरकारी तार सिर्फ पांच थे, पर घरों में जो तार बत्ती जलाने के लिए उससे जोड़े गए थे, उनका गुच्छा बहुत भारी हो गया था। दूर से देखने पर लगता था, वह बिजली का खंभा नहीं, मकड़ी का जाला उतारने वाला एक बांस हो जिस पर बुरी तरह मकड़ी का जाला लिपट गया हो। इतनी ही अजीब शक्ल मकानों के चबूतरों के पास पानी के नलों की थी। वहां इतने ज्यादा नल थे कि वे मकान नहीं किसी कारखाने के ब्वॉयलर लगते थे।

इन्हीं में से एक में अब एक जंजीर से नन्हे बंधा रहता था। यानी एक बंदर। यह बंदर अतीक आठ रुपए देकर खरीद लाया था। बंदर बिल्कुल बंदर जैसा ही लगता था, पर अतीक ने प्यार से उसका नाम रखा जहीनुद्दौला। उसका खयाल था कि वह नन्हा बंदर बहुत समझदार है। पर यह नाम ज्यादा चला नहीं।

उन दिनों कुछ लोग एक आंदोलन चला रहे थे। उसे वे 'हिंदू जागरण अभियान' कहते थे। उनका खयाल था कि सारे हिंदू सो रहे थे और मुसलमान जाग रहे थे। मुसलमान जाग रहे थे इसलिए मजे लूट रहे थे। इस अभियान के चलते पास की कॉलोनी के लड़के बहुत उत्साहित थे। यह कॉलोनी शहर के बीच एक बड़े राजा के बगीचे में वसाई गई थी जो शहर की घनी आबादी के बीच एक खूबसूरत नखलिस्तान था। इसमें मंगतराम जौहरी की कोठी भी थी और बिजली का सामान बेचने वाले अनंत मिश्र की भी। इसमें कुछ सेवानिवृत्त अफसर भी रहते थे और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी आंदोलन करने वाले ठाकुर सर्वदमन सिंह का मकान भी यहीं था। इन लोगों की लड़कियां शादी से पहले पढ़ाई और गोपनीय प्रेम में व्यस्त रहती थीं और लड़के बीच के छोटे पार्क में लकड़ी की महंगी थापियों से एक किस्म की ठोस गेंद खेलते रहते थे। ये लड़के ऐसे जुलूसों में काफी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे, जिनसे उन्हें अपने धर्म का संबंध दिखाई दे जाए। 'हिंदू जागरण अभियान' में भी वे हिस्सा ले रहे थे। इस कॉलोनी से मुख्य सड़क की तरफ निकलने के लिए एक बड़ा फाटक था और एक पतली-सी गली। इस गली के दोनों तरफ कभी राजा साहब के नौकरों की कोठरियों की कतार थी। वहीं कोठरियां कोई आधी सदी के अंतराल में छोटे-छोटे दुमंजिले मकानों में तबदील हो गई थीं जिनमें से किसी-किसी में चार या पांच परिवार भी रहते थे। जिससे कभी राजा के हाथी अंदर आते थे। उस विराट फाटक के दोनों पायों में दर्जी, हलवाई, परचूनी और अंडा-मक्खन बेचने वालों की दुकानें थीं और ऊपर की मंजिल में राजा साहब के परिवार का निवास था और एक बड़ी-सी तख्ती, जिस पर लिखा था-महाराजाधिराज गोबूराय हाउस।

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