कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
|
8 पाठकों को प्रिय 61 पाठक हैं |
हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
''रथीन बाबू, अब अपना देश स्वतंत्र हो गया, कुछ लाइसेंस-वाइसेंस ले लीजिए।" एक ऊंची-सी आवाज़ एक दिन कानों से टकराई तो वे सहसा बौखला-से पड़े थे। खादी के धवल वस्त्रों में लिपटे ये वही महानुभाव थे, जो बरेली जेल में उनके साथ-साथ राम बांस कूटते थे, मुंज की रस्सियां बंटते थे...
देश-सेवा के बदले में भी कुछ लिया जा सकता है यह गणित उनकी सहज बुद्धि से परे था।
"ठीक कहते हो दिवाकर भाई, ठीक कहते हो...!" उन्होंने दुखते दिल से कहा था, "मां की सेवा के बदले में भी कुछ लिया जा सकता है? ऐसा सोचना भी मेरे लिए पाप है। बारींद्र बाबू कहते थे–मातृभूमि की सेवा में सौ बार जन्म लेकर, सौ बार प्राण न्यौछावर करके भी मां के त्याग का बदला नहीं चुकाया जा सकता। मैंने तो आधा ही जीवन दिया है, दिवाकर भाई !”
दिवाकर भाई ‘हो-हो-हो' देर तक हंसते रहे थे, "बच्चों को हम कहीं अच्छी जगह लगवा देते हैं, बुढ़ापा आराम से कट जाएगा ! अधिक आदर्शवादी न बनिए, रथीन बाबू, कहीं ऐसा न हो कि फिर कभी पछताना पड़े !"
अब रथीन बाबू की हंसने की बारी थी, जिसने आमरण अनशन किया था-देवलाली कैंप में, सच नहीं लग रहा है कि तुम वही दिवाकर दास हो ! जिसने अपने रक्त से बापू को पत्र लिखा था। उनके जन्मदिन पर ! जिसके नाम से ही गोरे कांपते थे...”
रथीन बाबू कहते-कहते चुप हो गए थे।
स्वाधीनता सेनानियों को पेंशन मिलने लगी, परंतु रथीन बाबू ने उस ओर देखा तक नहीं।
एक विशेष समारोह में उन्हें ताम्र-पत्र दिया जाना था, किंतु वे वहां पहुंचे ही नहीं।
"मैंने भी देश की सेवा की थी, मैंने भी स्वाधीनता-संग्राम में भाग लिया था, इसका प्रमाण पत्र लेकर क्या करूंगा? मां-बाप की सेवा के बदले में भी क्या ऐसा ही ताम्र-पत्र मिलेगा? भगवान् की आराधना तथा मानव-सेवा के लिए भी..." मन-ही-मन पता नहीं वे क्या-क्या सोचते रहे। उनका यह अति आदर्शवाद स्वयं उनके बच्चों को रास नहीं आ पा रहा है, वे जानते थे, परंतु करते क्या?
मन ने जो न चाहा, वह उन्होंने जीवन-भर नहीं किया तो भला अब क्या करते-जीवन की इस संध्या में !
उनके कर्मठ जीवन के अस्सी साल पूरे होने की खुशी में, उन्हीं के मोहल्ले में एक समारोह किया गया। बड़े-बड़े नेता आए, बड़े-बड़े भाषण दिए, किंतु वे तटस्थ दर्शक की तरह चुपचाप देखते रहे।
अंत में उन्हें कुछ बोलने के लिए कहा गया तो वे पहले तो कुछ भी न बोल पाए। फिर रुंधे कंठ से बोले, “जलियांवाला बाग के बाद कितने देशभक्त अंग्रेज़ों की गोली का निशाना बने, शहीद हुए-क्या आपने सोचा... कालेपानी की जेल में हम लोगों ने विद्रोह किया था... तेरह दिसंबर की उस काली रात में सत्रह देशभक्तों को हमारे सामने गोली मार दी गई थी। उनकी खून से सनी, छटपटाती लाशों को देखकर मैं सचमुच कई दिनों तक पागल-सा हो गया था। अब भी कभी-कभी रात के अंधियारे में वे लाशें मेरी आंखों के आगे तैरने लगती हैं, तो पागलपन का एक दौर-सा शुरू हो जाता है। वे सारी लाशें चीखने-चिल्लाने सी लगती हैं-वह हिंदुस्तान कहां है, जिसके लिए हमने कुर्बानियां दी थीं...?"
|
- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
- सजा
- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर