कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"यशवंती, तुमने कभी उनके बारे में सोचा, जो गए और फिर कभी लौटकर ही नहीं आए? अपने रमाशंकर फरार हो गए थे, याद है? ट्रेन से कटकर मर गए, परंतु फिरंगियों के हाथ नहीं आए। दामो बहन सचमुच पागल हो गई थीं, अपने ही कपड़ों में आग लगाकर आत्मदाह कर बैठी थीं। निजात मियां का सीना गोरों ने उनके बच्चों के सामने छलनी कर दिया था। राबिया भाभी ने उफ तक न की। खून का पूंट पीकर भी इंकलाब के नारे लगाती रहीं।
".....तुम्हारी खुशकिस्मती थी कि कालेपानी से भी मैं लौट आया,
पर उनका सोचो, जो गए और वहीं के वहीं रह गए... उनके बच्चों का क्या हुआ होगा? ...तुम अपना दुख देखती हो, ठीक है, पर औरों का दुख किस पहाड़ से कम है?"
यशवंती चुप हो गई थीं। कुछ ही दिनों बाद इस संसार से भी चल बसी थीं, किन्तु उनका हृदय बुरादे की आग की तरह तब से निरंतर सुलगता रहा। जिन प्रश्नों को छोटा समझकर उन्होंने बिसरा दिया था, लौटकर अब मुड़कर देखते तो सांप की तरह, फन फैलाकर खड़े थे।
सुबोध आगे पढ़ पाता तो यों जिंदगी भर क्लर्की न करता... सुमिता का बुझा-बुझा चेहरा... ऋचा... केशु... कांता... उनके सामने प्रश्नचिह्न की तरह खड़े हो जाते।
"हमारा रथीन कालेपानी से अब क्या लौटेगा?" पिता इसी सोच में चल बसे थे। अंतिम बार पुत्र को देखने की लालसा लालसा ही बनी रह गई थी।
"रथीन के बच्चों का क्या होगा? कौन संभालेगा उन्हें? कौन देख-रेख करेगा?" बूढ़ी मां ने रो-रोकर अपनी आंखें अंधी कर डाली थीं।
फिरंगियों ने जमीन-जायदाद नीलाम कर डाली थी। अनाथ परिवार, दूसरों के ओसारे में सिर छिपाने लगा था...
कालेपानी की नारकीय यातनाओं से मुक्त होकर एक दिन वापस आए, तो यहां भी वैसी ही वीरानी थी... और एक दिन आजादी भी मिल गई, तब भी...
रथीन बाबू की बूढ़ी आंखें कहीं शून्य पर अटक आतीं।
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