कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
फिर कुछ सोचती हुई बोली, "मैं तो शादीशुदा थी न! तुम कल्पना नहीं कर सकती, तुम्हारे कसाई निर्लज्ज बाप ने अपनी तरक्की के लिए किस-किस तरह से मेरा इस्तेमाल नहीं किया...। इतनी नौकरियां कीं, वहां भी क्या-क्या नहीं हुआ। जिसे तुम पिता कहती हो, तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम उसी की बेटी हो, अग्नि को साक्षी रखकर जिसके साथ मैंने सात फेरे लिए थे...? यों तुम फटी-फटी आंखों से क्या देख रही हो बिटिया, विश्वास नहीं हो रहा है न ! सच सह पाना बड़ा कठिन होता है रे !”
"तुम्हें सच नहीं लग रहा होगा दीपेन ! पता नहीं मैं किस बहाव में थी, बस बोले चली जा रही थी...
"दही देखा है तुमने? कितना स्वास्थ्यवर्द्धक, स्वादिष्ट होता है। कभी उसकी एक बूंद खुर्दबीन पर रखकर देखना। यथार्थ समझ में आ जाएगा...। हर नदी की परिणति एक ही होती है-सागर में समाना, उसी तरह औरत की भी नियति लगभग ऐसी ही-कभी अनिच्छा से तो कभी स्वेच्छा से.... एक मार्ग चुन लो बेटे, वही तुम्हारे लिए वास्तविक विकल्प है।
"धीरा दिनों तक मौन रही। फिर उसने कभी कोई बहस नहीं की। वरुण बुलाने आया तो चुपचाप चल दी...।" रंजना की बातें समाप्त होने को नहीं आ रही थीं। रात्रि ट्रेन से मुझे लौटना भी था।
घूम-घूमकर रंजना ने सारा घर दिखलाया। घर-परिवार के लोगों से मेरा परिचय कराया। यह भी विस्तार से बतलाया कि किसी कोरियन कंपनी के साथ मिलकर वरुण ने पुणे के पास इलेक्ट्रॉनिक्स का नया कारखाना लगवाया है।...पिछले कुछ अर्से से अब सारा कारोबार धीरा ही संभालती है। वही एक तरह से मालकिन है, इस 'बिज़नेस हाउस' की।
जलपान के पश्चात मैं चलने लगा, तो देखा वयोवृद्ध गृहस्वामी घोड़ा बने, ड्राइंग रूम के कालीन बिछे फर्श पर अपने सवा चार साल के पोते को पीठ पर बिठाए खेल रहे हैं जो ज़ोर-ज़ोर से किलक रहा है। और पास खड़ी आया की गोद में एक नन्हा-सा शिशु ख़रगोश की तरह दुबका बैठा है। टुकुर-टुकुर मेरी ओर देख रहा है।
चलते-चलते रंजना इशारे से बतलाती है, "दीपेन, यह हमारी धीरा का दूसरा बच्चा है।"
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- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
- सजा
- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर