कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
इतने में चाय आ गई। वह दूर से ही गर्म प्याली में से उठती भाप की दोहरी-तिहरी पारदर्शी लकीरों की ओर देखती रही, खामोश निगाहों से। फिर कुछ गंभीर स्वर में बोली, "बरात विदा हुई तो मुझे लगा, घर बैठे ही गंगा नहा गई। एक साध पूरी हुई। उस रात जैसी सुकून की नींद शायद ही जिंदगी में कभी आई हो। धीरा को सबसे अच्छा घर मिला, वरुण जैसा दर्शनीय वर-मुझे और क्या चहिए था? अपने ही भाग्य पर मुझे ईर्ष्या हो रही थी...
"सुबह अभी अंधेरा-सा था। पौ भी फटी नहीं थी। उजास जैसा भी कहीं लग नहीं रहा था कि बिस्तर पर लेटे-लेटे मुझे बाहर किसी स्कूटर के रुकने की जैसी घरघराहट का-सा अहसास हुआ। और क्षण भर बाद बाहर दरवाजे पर जो कॉल-बेल बजी, वह बजती रही लगातार।
"मैं हड़बड़ाकर उठी। दरवाजा खोला तो स्तब्ध रह गई।
धीरा सामने खड़ी थी। शादी के कपड़े अस्त-व्यस्त। बाल बिखरे हुए। बिना कुछ बोले, वह दहाड़ मारती हुई मुझसे लिपट पड़ी...
"मेरे बार-बार पूछने पर भी कोई शब्द फूटकर नहीं आ पा रहा था।
"अरी, क्या हुआ बिट्टो? कुछ बोल भी न ! पगली, रोए चली जा रही है।”
उसकी हिचकियां बंध गईं।
"बड़ी देर बाद रोती-रोती बोली, रुक-रुककर, "मम्मा, आपने मेरी शादी किससे कर दी?” | "क्यों? क्यों?"
उसके पास तो..."
"क्या...? क्या...?”
"हां, मम्मा, वह 'सॉरी'... कहकर एकदम गुंगा-सा चुप हो गया। उसकी दोनों टांगें थर-थर कांप रही थीं। इस सर्दी में भी ठंडे पसीने से वह बुरी तरह नहा आया था। फिर कुछ सहज होने का प्रयास करता हुआ, घिघियाकर बोला, "मेरी एक नहीं सुनी घरवालों ने। ज़बरदस्ती पकड़कर मंडप पर खड़ा कर दिया। कहने लगे-इत्ता सयाना लड़का बिना ब्याहे रहे, कुछ न कुछ खोट तो होगा ही...। लोक-लाज के भय से उन्होंने...।”
धीरा फिर रोने लगी।
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