कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
एक सार्थक सच
रंजना सामने बैठी है। पर बैठी होने के बावजूद लगता नहीं कि बैठी है। किसी दूसरी दुनिया में खोई। उड़ी-उड़ी। शून्य में न जाने क्या टटोलती हुई-सी।
कुछ खोजती निगाहों से देखता हूं, उसका चेहरा बर्फ की तरह धीरे-धीरे पिघलता हुआ पारदर्शी हो रहा है। पानी की सतह पर तैरती पानी की लकीरों की तरह अनेक प्रतिबिंब धूप-छांह की भांति आ-जा रहे हैं।
एक अनाम रिश्ते का ही दूसरा नाम है-रंजना ! वर्षों तक बचपन में साथ-साथ पढ़े। साथ-साथ बढ़े। लगता है, जैसे कल की ही बात है। इन कुछ वर्षों में कितना कुछ नहीं बदला, पर रंजना में कहीं किसी तरह का परिवर्तन नहीं झलकता। वह वैसी ही है, जैसी तब थी।
मैं देख रहा हूं वह कहीं गहरे संशय में है। पके पांगर-जैसे उसके रूखे, भूरे बाल हवा में इधर-उधर बिखर रहे हैं। लगता है, उनमें जैसे एक प्रकार की सिहरन-सी हो रही है। हल्की -सी, सहज, संयत कंपकंपाहट-सी।
"दीपेन, मैं धीरा के बारे में कह रही थी, वह बोली, "तुम तो जानते ही हो, तिनका-तिनका सहेजकर किस तरह मैंने यह घोंसला बनाया था, उसके लिए...।"
रंजना जैसे हवा में झूल रही हो। मुझे सुनाकर, जैसे स्वयं से कह रही हो।
"वही मुझ अकिंचन की जीवनभर की संचित पूंजी थी। पिता के रूप में अरुण का होना, न होना तो सब अर्थहीन था। पैतृक संपत्ति के नाम पर, मात्र एक बित्ते भर का फ्लैट था-लक्ष्मीनारायण मंदिर के पिछवाड़े, नया बाजार में जाने से पहले वे न जाने क्यों, एक तरह के अपराधबोध से ग्रसित-से हो गए थे। बार-बार यही कहते कि धीरा के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं जा रहा। बचा ही अब क्या है शेष...?"
फर्श पर बिछे रंगीन कालीन की बनावट की ओर निर्निमेष ताकती हुई वह उसी स्वर में कहती जा रही है, "ठीक ही तो कहते थे। शराब-कबाब-जुआ कौन-सी बुरी लत नहीं थी? इसीलिए रोज-रोज की कलह। मार-पीट। गाली-गलौज। घर घर नहीं रहा, एक तरह से यातनाघर जैसा बन गया था... बड़ी मुश्किल से मुक्ति मिल पाई। वह फ्लैट भी बिकने से इसलिए रह गया कि पापा ने पता नहीं क्या सोचकर गलती से वह मेरे नाम कर दिया था। बेटे के करतबों से वे बेहद परेशान थे। नहीं तो रंगीन प्यालों में घोलकर इसे भी कब का पी जाते....।”
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- इस बार बर्फ गिरा तो
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