कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
दुर्बल तन पर चिथड़े टंगे रहते। पांवों में जूते तक नहीं। जब जो मिला, खा लिया। जहां रात हुई; सो गए।
सीमा भाभी रोती रहतीं। रूही जंगले पर खड़ी, "ममी, ओऽ पापा तो नहीं !" फटे चिथड़े पहने जो भी भिखारी आता, उसी की ओर चहकती हुई लपक पड़ती।
कहते हैं-शिव'दा के पिता सेमुअल रामदास यहां के आदिवासी क्षेत्र में बने 'मिशन-अस्पताल' के डॉक्टर थे कभी। खादी के कपड़े पहनते थे। चरखा कातते थे। इसलिए विदेशी सहायता से चलने वाले इस अस्पताल से संबंधित गोरे, अधगोरे अफसर और पादरी उनसे क्रुद्ध थे। उनका वश चलता तो कब का उन्हें हटा देते। किंतु इस पूरे इलाके में उनकी बड़ी धाक थी। उनके एक इशारे पर सारे आदिवासी सदैव मर मिटने को तैयार रहते।
ऐसा कोई आदमी नहीं था जिसकी उन्होंने सहायता न की हो। जाड़े में, पश्मीना ओढ़कर किसी मरीज़ को देखने गए तो
उसके शीत से ठिठुरते गात पर अपना पश्मीना डाल दिया। किसी रोगी के घर में राशन नहीं, तो दवा के साथ-साथ राशन भी पहुंचा दिया। कितने ही आदिवासी बच्चों को उन्होंने पाठशाला भिजवाया। कितनों की किताबों और कापियों के लिए पैसे जुटाए !
अंत में सन् बयालीस का आंदोलन शुरू हुआ। 'करो या मरो' का नारा लगा तो उन्होंने भी अस्पताल छोड़ दिया। तिरंगे झंडे के नीचे आदिवासी क्षेत्र में नए आंदोलन का सूत्रपात किया। पर सरकार के पिट्ठओं ने आदिवासियों के झोंपड़े गिरा डाले। स्कूल की इमारतें तोड़ डालीं। कई पशु और आदमी जिंदा जला दिए। और उसी दमन-चक्र में अंत में शहीद हो गए सेमुअल रामदास भी।
आज भी बाबा भीखन चंद उस दिन का आंखों देखा हाल सुनाते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
सेमुअल रामदास की लहूलुहान देह ज़मीन पर कुचले हुए केंचुए। की तरह छटपटा रही थी। उनकी कांपती हुई मुट्टियों में झंडा जकड़ा हुआ था। होंठ कांप रहे थे। फुसफुसाहट की-सी कांपती आवाज़ आ रही थी। इन्न-कलाब !
यही उनके अंतिम शब्द थे शायद !
लोग कहते हैं-उस दिन मैदान में फैला बरसात का पानी तक लाल हो आया था।
जहां पर सेमुअल रामदास शहीद हुए थे, वहां अब बाज़ार बन गया है। शहीद चौक के नाम से एक चबूतरा है (जिस पर कभी-कभी कस्बे के गुंडे ताश खेलते हैं)।
वही 'शहीद चौक' अब सराय बनी शिव'दा की।
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