कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
वैसी ही कद-काठी, वैसा ही रूप-रंग। शिवदा जब खादी के कपड़े पहनते, लोग कहते, हूबहू पिता की प्रतिमूर्ति लगते हैं। बोलने का लहजा, चलने का ढंग-कहीं रत्ती भर भी तो अंतर नहीं...
मां जनते ही मर गई थी। कुछ समय बाद पिता भी यों अनाथ छोड़ गए तो मौसी के घर पले... दूसरों के सहारे पढ़-लिखकर शिवदा एक दिन अध्यापक हो गए थे, आलमगंज के इसी प्राइवेट स्कूल में।
रूप-रंग, चाल-ढाल ही नहीं, आदतें भी उन्हें विरासत में मिली थीं-पिता से। रात में प्रौढ़ पाठशाला चलाते। दिन में स्कूल से लौट आने पर गरीब बच्चों को घर पर बुलाकर पढ़ाते।
सीमा भाभी कुढ़ती रहतीं, लेकिन परमहंस की तरह शिवदा मौन साधे रहते।
कभी-कभी हंसी में कहतीं, "याद है, आपका जन्म 25 दिसंबर को हुआ है-ईसा की तरह।”
शिव'दा सीमा भाभी के चेहरे की ओर अबोध बालक की तरह ताकते रहते। उनकी बात काटते हुए बोल पड़ते, “हां, तब तो मुझे भी एक दिन सलीब पर लटकना होगा... देखना, ज़रूर लगेगी फांसी।”
“चुप, चुप !” सीमा भाभी उनके होंठों पर हथेली रख देतीं, “ऐसा क्यों कहते हैं? आपको क्यों लगेगी फांसी? आपने क्या गुनाह किया है ऐसा...?"
यों ही व्यंग्य भाव से हंस देते शिवदा, "तू तो निरी भोली है, फांसी पर झूलने के लिए क्या गुनाह करना जरूरी है? बता, ईसा ने क्या गुनाह किया था? सुकरात को क्यों...? गांधी को किसलिए...?”
सीमा भाभी प्रत्युत्तर में चुप हो जातीं और शिवदा भी।
आधी-आधी रात तक वे चरखा कातते। पुस्तकें पढ़ते और पत्नी को समझाते, “जिंदगी तो एक दिन ख़त्म होनी ही है, पर इसे किसी अच्छे काम पर क्यों न लगाएं? अपना पेट तो चौपाया भी भरता है। आदमी और पशु में कुछ तो अंतर है..."
सीमा भाभी चुपचाप सुनती रहतीं और मौन हो जातीं। कभी-कभी यह सब असह्य हो उठता तो तुनक पड़तीं, “मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। मैं आधा पेट खाकर, फटे कपड़े पहनकर भी रह लूंगी, पर इस रूही का तो कुछ ख्याल करो। इसके भविष्य के बारे में भी तो सोचो।”
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- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
- सजा
- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर