कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
वह मां के पास बैठा है। सामने पत्नी खड़ी है। बच्चे खड़े हैं। सबकी निगाहें वृद्धा पर टिकी हैं।
क्षणभर सन्नाटा रहता है।
वह एक पल बाद, कुछ सोचता हुआ, बड़ी मुश्किल से कह पाता है-"अम्मा, चंपावत तक जा पाओगी..?"
मां सुनकर भी जैसे सुन नहीं पा रही है।
चाय की जूठी कटोरी पास ही रखती हुई कहती है, “कोशिश करूंगी बेटे ! जाऊंगी क्यों नहीं...?" वह चुप हो जाती है। फिर जैसे सहसा नींद से जगी हो। पूछती है, “क्या कहा च-म-पा-व-त !”
“हां, इजा, हां... तहसील में...।" वह बड़े सहज उत्साह से समझाता है, “समय हो गया है न ! बाद में जाने पर नुक्सान होगा...।"
‘वहां क्यों जाना है, क्यों जाना है बेटे...?' वह जैसे स्वयं से पूछ रही हो।
"अरे, अम्मा, इस तेरह गते को पूरे तीन महीने हो गए...बाबू की पेंशन नहीं लानी क्या?"
“हां, बेटे, हां ! मेरी तो मति ही मारी गई है। अक्ल पर ही पत्थर पड़ गया है। मैं तो भूल ही गई थी कि तेरे बाबू के नाम की पेंशन भी लानी है। कोशिश करूंगी। क्यों नहीं जाऊंगी भला...!"
बेटे का चेहरा खिल उठता है।
पत्नी का भी।
उन्हें लगता है, इस उपेक्षिता का भी कोई अस्तित्व है, जिसे उन्होंने मात्र पोटली या सांस लेती गठरी मान लिया था, उसकी भी उपयोगिता है।
इसी गठरी या पोटली को एक दिन उठाकर वे चंपावत की तहसील में ले जाते हैं और उसी तरह लाकर, उसी अंधियारे कोने में धर देते हैं, ताकि बाद में कभी फिर उठाकर ले जाने में कठिनाई न रहे।
एक-दो दिन तक देख-रेख अच्छी होती है, परंतु बाद में फिर वही सिलसिला !
एक दिन वृद्धा तंद्रा की-सी स्थिति में जागती है। अभी-अभी जो कुछ देखा, सच नहीं लग रहा है उसे।
बेटा बहू को डांट रहा है। बहू रो रही है। बच्चे भी रो रहे। हैं। सब रो रहे हैं।
वृद्धा देखती है, वह मर गई है। उसे सफेद कपड़े से ढककर आंगन में लिटाया है। चारों ओर लोग घेरे खड़े हैं, उदास-से चेहरे लिए।
रेवा का सिर उस्तरे से घुटा है। वह कुश-तिल लिए मां का गोदान कर रहा है। गाय खड़ी है।
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- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
- सजा
- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर