कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
पता नहीं चाय क्यों इतनी बेस्वाद लगी ! एक अजीब-सी गंध आ रही थी। पानी ही ऐसा होगा, मैंने मान लिया था।
इस खुली जेल के बारे में कुछ विशेष जानकारी हासिल करने के लिए मैं यहां आया था। इन विकट अपराधियों को, इस तरह मुक्तभाव से विचरण करते देख, मुझे अजीब-सा लग रहा था-एक विचित्र-सी दहशत। ये भागते नहीं होंगे ! आपस में ही कभी फिर कत्ल !
"अभी आपको कैदियों के फार्म की ओर भी जाना है। गेहूं की यह फसल इन्हीं कैदियों ने उगाई है। यहां पहले बियाबान जंगल था। इन्हीं लोगों ने उसे साफ किया था।” ख़ाकी कपड़े पहने एक व्यक्ति पास आकर बोला।
कुछ क्षण विश्राम करने के पश्चात हम फिर आगे बढ़े-खेतों की तरफ।
यहां परती धरती तोड़ी जा रही थी। दो-तीन ट्रैक्टर धू-धू करते हुए ढेर सारी धूल एक साथ उड़ा रहे थे। ट्रैक्टरों के पीछे-पीछे कुछ लोग नंगे पांव दौड़-से रहे थे। जो भी पत्थर सामने दीखता, उठाकर एक ओर जमा करते चले जाते।
जहां ट्रैक्टर चल चुके थे, वहां टोलियों में बिखरे लोग घास-फूस इकट्ठी करके जला रहे थे। जगह-जगह घास की ढेरियों के पास धुआं उठ रहा था। बुआई के लिए खेत यथाशीघ्र समतल हो जाएं, सब इसी प्रयत्न में जुटे दीख रहे थे।
सिर पर मोटे खद्दर की मैली-सी सफेद टोपी, उसी कपड़े की आधी बांह की बंडी, घुटने तक का वैसा ही पजामानुमा कच्छा पहने कितने ही लोग यंत्रवत काम में जुटे थे। अलग-अलग दिशाओं में अनेक टोलियां।
घंटों तक पैदल इधर-उधर चलने के पश्चात अंत में हम उस सिरे पर पहुंचे, जहां कैदी मज़दूरों ने अपने ही प्रयत्नों से एक नाले का बहाव रोककर छोटी-सी कृत्रिम झील बना ली थी। बीच पानी में कई पेड़ आधे-आधे डूबे थे। किनारे की लाल कच्ची मिट्टी अभी तक भी गीली थी, जैसे अभी-अभी झील का निर्माण-कार्य समाप्त हुआ हो !
कुछ और आगे बढ़कर अंधेरे सिरे पर पहुंचे तो वहां गीली जमीन पर शेर के पंजों के जैसे निशान दिखलाई दिए।
"यहीं पर कुछ दिन पहले शेर ने एक कैदी को मार डाला था..."
पुलिस अधिकारी ने और आगे न बढ़ने के लिए चेतावनी-सी देते हुए कहा।
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