कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
बगल में खड़े अधिकारी ने मेरे कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाते हुए कुछ कहा-इतने धीमे स्वर में कि सामने खड़ा व्यक्ति न सुन सके। फिर भी पता नहीं, किस तरह वह भांप गया। बोला, "हमहू भी राजा–आफता अहि-मुजरिम..."
किस अपराध में?"
"दफा तीन सौ दोई-उमर कइद।”
मुझे आघात-सा लगा।
''जुर्म क्या?"
''क-तल।” उसने बड़े सहज भाव से कहा।
पर मेरा मुंह तनिक खुल-सा आया।
“यहां सभी कैदी लगभग ऐसे ही हैं।'' अधिकारी ने बतलाया, अधिकतर दफा तीन सौ दो के हैं-आजन्म कारावास वाले।"
आस-पास खड़े अन्य व्यक्तियों को भी उन्होंने इशारे से पास बुलाया।।
हत्या ! मारपीट ! डकैती !
सुबह तड़के जब यहां के लिए रवाना हुए, तब कुछ-कुछ सर्दी थी। किंतु इस समय दोपहर की धूप कहीं चुभ-सी रही थी।
समीप ही पेड़ के नीचे धूल से ढकी, काठ की टूटी हुई दो-तीन पुरानी कुर्सियां पड़ी थीं। रूमाल से उन्हें साफ कर किसी तरह बैठ गए।
साथ आए सज्जन चाय की व्यवस्था करने चले गए।
कुछ देर पश्चात पुलिस अधिकारी के पीछे-पीछे एक नाटा-सा व्यक्ति केतली और लोहे के गिलास थामे, लंबे-लंबे डग भरता चला आ रहा था। उसकी सामने वाली जेब कुछ उभरी हुई थी। बिस्कुट के छोटे पैकेट का ऊपरी हिस्सा साफ दिखलाई दे रहा था।
चाय लाने वाला भी कोई कैदी था और बनाने वाला भी।
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