कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कहते हैं-उसकी बूढ़ी मां है। अपने इकलौते जवान बेटे का मुंह देखने के लिए जिसके प्राण वर्षों से कंठ में अटके हैं।
कहते हैं-उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं, जो अब अपने बाप की शक्ल तक भूल गए हैं...
कहते हैं-उसकी जवान पत्नी है, जिसके सारे बाल अब सन की तरह सफेद हो गए हैं।
अपने फटे चिथड़े के बीच रूखी रोटी के साथ उसने एक फटी पोटली छिपा रखी है। वह बतलाता है-इसमें सिंदूर बंधा है-उन विधवाओं का, जिनके जवान पति यहां आए दिन बकरे की जैसी मौतें मरते रहते हैं। जिनके लिए इकट्ठा किए गए गर्म कपड़े, कलकत्ता के बाजारों में सरेआम में बिकते हैं। जिनकी बंदूकों के लिए चंदे से एकत्र किया गया धन, किसी 'देशभक्त' की नई इमारत की नींव भरने के काम आता है। जिनके लिए केवल नक्शों पर सड़कें बनती है, नक्शों पर विशाल पुलों का निर्माण होता है...
कुछ नपुंसक झंडे लिए खड़े हैं। सेनाएं बहादुरी से पीछे हट रही हैं-खून का दरिया सूखी धरती सींच रहा है-और लाशों के पहाड़-पर-पहाड़ खड़े हो गए हैं...
वह कहता है उसे नींद नहीं आती-इन बर्फीली वादियों से हर रोज़ मुर्दो के रोने की आवाज़ आती है...
बिना पूंछ और सींग वाले कुछ पशु एक ऊंचे मंच पर बैठे हैं। कहते हैं-इंसानियत का भार अब हमारे कंधों पर है...।
एक अंधा ज्योतिषी चौराहे पर चादर बिछाए बैठा हैं और रो रहा है। कहता है-अब सपाट हथेलियों वाले लोग पैदा हो रहे हैं–बिना माथे के मनुष्य...।
इंडिया गेट से संसद-भवन तक के सारे हरे-भरे मैदान रंग-बिरंगी भेड़ों से भरे पड़े हैं... भेड़े घास कम और गीली मिट्टी अधिक आसानी से खा रही हैं...
लोग कहते हैं-यह घास प्लास्टिक की है। भेड़ों को बहलाने के लिए विदेश से मंगाई है और यों मैदानों में बिखेर दी गई है....
भेड़ों के हर झुंड के पीछे लाठी उठाए एक भेड़िया खड़ा है। कानून की भाषा में जो 'गड़रिया कहलाता है....
गड़रिये मरी हुई भेड़ों का ही नहीं, जिंदा भेड़ों का मांस भी काट-काटकर बेचते हैं...
मैं हिसाब लगाता हूं-इस देश में अब कुल कितनी भेड़ें होंगी। और उन्हें पालने के लिए कुल कितने भेड़िये !
कहते हैं-सन् 1947 में भेड़ों के बाड़े का विभाजन हुआ था, जिसमें इन्हीं भूखे भेड़ियों ने आठ लाख भेड़ें दिन-दहाड़े क़त्ल करवा दी थीं...
दो क़साइयों ने अपनी मां की जीवित लाश दो टुकड़ों में विभाजित की और थोड़े से पैसों के बदले, बूचड़खाने में रखकर-काट-काटकर बेच डाली।
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