कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
आश्रय
कल सारी रात उन्हें नींद नहीं आई। बार-बार वे ही अजीब-से। सवाल उन्हें मथते, हवा में तिरते रहे...
क्या अब तक जो जिया, वह सार्थक था? क्या जो अब किस्तों में जीना है, उसकी कोई उपयोगिता है?
टुकड़ों में बंटा व्यक्तित्व जब भावात्मकता के धरातल से ऊपर उठकर कोई आकार लेने लगता है तो स्वयं को परखने का उसे एक नया आयाम मिल जाता है। जीवन भर संघर्ष करने के पश्चात भी क्या उन्हें वह मिला जो चाहे या अनचाहे, जाने या अनजाने उन्होंने चाहा था?
वृंदा कहती थी, “मेरे जाने के बाद क्या होगा आपका? आपको तो गृहस्थी की वर्णमाला भी नहीं आती?"
उन्हें लगता, हां, वह ठीक ही तो कहती है-इतना पढ़ने-लिखने के पश्चात, जिंदगी की पाठशाला में पूरी जिंदगी खपाने के बाद भी वे वैसे ही निपट कोरे हैं, सफेद कागज़ की तरह, जैसे पहले थे, जब जीवन का अंकगणित आरंभ किया था।
मृत्यु से कुछ अर्सा पहले, छह महीने का वीजा लेकर वे अमेरिका गई थीं, न्यू जर्सी श्रेया के साथ।
श्रेया का आग्रह था, "मम्मी, एक बार आप वहां आकर देखें न, हम सब किस तरह की जिंदगी जीते हैं ! पहले जब आप पापा के साथ आई थीं, तब हमारी नई-नई गृहस्थी थी। उतनी सुविधाएं भी नहीं थीं ! पर अब वैसा नहीं है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता तो आप पापा के साथ कितनी बार गई हैं, पर इस बार तो आपको हमारे साथ चलना ही होगा।"
कुछ रुककर वह आगे बोली, “न्यू जर्सी में एक लाख से अधिक होंगे, भारतीय मूल के लोग ! आपको वहां कहीं भी परायापन नहीं लगेगा। अभी हाल ही में एक नया मंदिर भी बनाया है, जहां भजन-कीर्तन चलते रहते हैं ! स्वीटी भी आपके साथ बहुत खुश रहती है."
बच्चों की व्यावहारिकता भरी 'समझदारी' और बूढ़े मां-बाप की 'लाचारी' वृंदा भली-भांति जानती हैं।
धुंध में वे कुछ टटोलने लगती हैं। पर धुंध में धुंध के अलावा और कुछ नहीं हाथ आता !
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