कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
बच्चों की चतुराई से भरी बातों पर उन्हें गुस्सा नहीं आता, बल्कि हंसी आती है, करुणा के साथ-साथ !
श्रेया जानती है, पापा अब बाहर जा नहीं सकते; लंबी बीमारी के कारण ! मम्मी यदि साल-छह महीने के लिए ही आ पातीं तो स्वीटी की समस्या किसी हद तक फिलहाल हल हो जाती।
प्रियांशु और श्रेया को सुबह-सुबह काम पर जाना होता है। अतः समस्या थी स्वीटी की !
फिर मम्मी के रहने से और भी अन्य सुविधाएं मिल जातीं। कम-से-कम कुछ महीने तो भारत की तरह सुबह-शाम गर्म खाना उपलब्ध हो ही जाता। घर और ऑफिस की डबल ड्यूटी से मुक्ति मिलती।
श्रेया का मन रखने के लिए वृंदा चली तो गईं, पर वहां जी लगा नहीं। लौटीं तो बुरी तरह निढाल होकर। बीमार बनकर। इतनी थकी, इतनी मायूस, भीतर-ही-भीतर इतनी टूटी हुई।
वे पहले ऐसी कभी नहीं लगीं।
"जैसा भी हो भला-बुरा, अपना देश आख़िर अपना ही देश होता है ! वहां तो किसी से बातें करने के लिए भी तरस जाते हैं। कभी-कभी अरुणा और शिप्रा का न्यूयॉर्क से फोन आता तो कितना अच्छा लगता !"
"मामी जी, न्यूयॉर्क से न्यू जर्सी की दूरी ही कितनी है ! जब आप कहेंगी पापा खुद जाकर ले आएंगे।"
वहां की परेशानियों में वे इस कदर उलझी रहीं कि 'बुलाने और जाने का अवसर ही नहीं मिला।
दिन भर अकेले कमरे में। स्वीटी कुछ क्षण खेलकर, थककर सो जाती, तब रह जातीं रीती दीवारें और टेलीविज़न पर अंग्रेजी के ऊल-जलूल कार्यक्रम !
कलेंडर में समाप्त होता एक-एक दिन देखकर, किसी तरह छह वर्ष, नहीं-नहीं, छह महीने पूरे किए।
मात्र इन छह महीनों में ही, जैसे वे बुढ़ा गई हों !
दिन भर के एकांतवास के बाद शाम को जब बेटा-बहू आते तो कुछ चहल-पहल रहती। कुछ क्षण मात्र बतियाने के लिए बतियाकर, दिन भर के थके वे अपने-अपने में सिमट आते। और वे फिर उसी, अकेलेपन के वीराने में पागलों की तरह बदहवास-सी भटकने लगतीं।
छह-सात साल पहले भी एक बार अमेरिका हो आई थीं, तब पति भी थे साथ, इसलिए अकेलेपन का अहसास ही नहीं हुआ।
तब बहू-बेटे की नुक्ताचीनी में ही बहुत सारा समय बीत जाता।
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