कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"आरती ने बतलाया था कि तुम अब...” सन्नाटा तोड़ता हुआ उसकी ओर देखता हूं।
वह सोचती हुई एकाएक चहक उठती है, "आरती ने यही तो बतलाया था न कि दीप ने जहर खा लिया है.. दीप की पति से अनबन रहती थी...दीप ने..."
"हां, हां !”
वह हंस पड़ती है, "उसने सब सच कहा था। अरे, वह मैं नहीं, मेरी मौसी की लड़की थी दीप। मेरी ही क्लास में पढ़ती थी। हसबैंड से झगड़ा होने के कारण पॉयज़न खा लिया था। उसकी डेथ हमारे ही पड़ोस के मकान में हुई थी-मेरे ही सामने..."
बगल की रीती तिपाई पर दीप स्वयं बैठ जाती है।
कन्नो' दी अब कहां है... रानी अमेरिका कब गई थी... उसका छोटा भाई वसंत कलकत्ता जाते समय रास्ते में मिला था... कहता था कि रानी ने किसी स्विस डॉक्टर से शादी कर ली है... आरती बी.डी.ओ. के सेलेक्शन में आ गई है... आजकल बहराइच है... बड़े पापा को रिटायर हुए अब साढ़े तीन साल हो गए हैं-लखनऊ की कितनी ही बातें हम दोहराते रहे। मुझे लगा, घड़ी की सूई आज अनायास पीछे लौट गई है। और हम बहुत वर्ष पुरानी जिंदगी आज फिर जी रहे हैं...
एक रात रुककर दीप दूसरे दिन शाम की ट्रेन से जयपुर चली जाती है और पूरा आश्वासन देती है कि लौटते समय कम-से -कम दो-एक दिन अवश्य रुकेगी...
दीप के जाने के दूसरे ही दिन मैं कुछ पुराने कागज़ों को टटोल रहा था कि देखता हूं, पीले बीमार कागजों में एक चित्र पड़ा है। यह चित्र 'दीप की मृत्यु के बाद’ खींचा गया था (आरती के शब्दों में)। दीप से इतना मिलता-जुलता है कि दीप का-सा ही लगता है। आरती ने ही इसे भेजा था और लिखा था कि ताई-दीप की मां-रो-रोकर अंधी हो गई हैं। पापा बीमार रहते हैं-विवाह के लिए जोर उन्होंने ही दिया था। बेचारी दीप तो मना करती ही थी। अर्थी उठते समय ताई बेहोश होकर गिर पड़ी थीं...
फिर मरी हुई दीप का आना कोई सपना तो न था ! जिस दिन दीप को छोड़ने स्टेशन तक गया था, उस दिन का प्लेटफॉर्म टिकट, जिसे टिकट-कलेक्टर वापस लेना भूल गया था, अब तक मेरी जेब में पड़ा है...
जाते समय वह कुछ पुस्तकें छोड़ गई थी जो मेरी मेज़ पर अब तक बिखरी पड़ी हैं....
न जाने कितने वर्षों से मैं एक-सा ही, यानी एक ही सपना देख रहा हूं-बर्फ से ढकी किसी छिछली चट्टान पर मैं उतर रहा हूं-बित्ते-भर के संकरे रास्ते पर, कभी किसी भी क्षण पांव फिसल पड़ने की आशंका है...नीचे पाताल की-सी दूरी है। जहां एक स्याह नदी, सांप की तरह बल खाती, किसी अंधेरी खोह की ओर सरक रही है... बर्फीली ठंडी हवा... रात का अंधेरा... और मैं अकेला, पसीने से नहाया हुआ, एक-एक डग संभल-संभलकर, डर-डरकर रख रहा हूं कि कहीं फिसल न पडूं ! शायद मैं मरना–यों मरना नहीं चाहता।
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