कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
बाथरूम की मोरी में से सांप-जैसे लंबे-लंबे पतले केंचुए गुच्छे की शक्ल में भीतर आकर फर्श पर सुतली के तागे की तरह इधर-उधर सरक रहे हैं...।
वह धड़ाम-से बाथरूम का किवाड़ मूंदकर बाहर आता है।
चादर उठाकर बाहर बरामदे में फेंकता है और दिन भर का हारा-थका-सा रीते पलंग पर यों ही चित लेट जाता है।
धूल-जैसी बारीक चींटियां अभी भी बिस्तर पर कहीं-कहीं रेंग रही हैं। उनके काटने से सारे शरीर में तीखी जलन-सी मचने लगती है।
शायद बाहर अब बारिश हो रही है। तेज हवा चल रही है।
तभी दरवाजे पर लगातार खटखटाने जैसी आवाज़ सुनाई देती है उसे।
कुंडा खोलकर देखता है। खादी के फटे कपड़े पहने, लंबी दाढ़ी वाले एक वृद्ध पानी से भीगे, सामने खड़े हैं।
"आप क्रांतिकारी दामोदर पंडित के बारे में पूछ रहे थे न ! हमारे पड़ोसी कुटप्पा बतला रहे थे..."
“जी हां ! वे मेरे दादा जी थे। कालापानी की सज़ा पर आए थे। लगता है, उन्हें गुज़रे भी अब अर्सा हो चुका होगा..."
'गुज़रे' शब्द उसे भारी-सा लगता है। लगता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए था। जब मरे-बचे का पता ही नहीं तो...।
वृद्ध बड़ी करुण-दृष्टि से उसे देखते रहते हैं।
"हम दोनों अर्से तक साथ-साथ रहे थे बेटे !" कुछ रुककर वे कहते हैं, "चलो मेरे साथ ! बतलाता हूं।"
बाहर अब वर्षा उतनी तेज़ नहीं। कुछ-कुछ थमने की जैसी प्रक्रिया में है। वह वैसा ही अकबका-सा किवाड़ मूंदकर उनके साथ-साथ बाहर निकल पड़ता है।
देर तक वे चुपचाप चलते रहते हैं।
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