कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
वहां का भुतहा वातावरण उसका पीछा करता रहता है। एक गहरा अवसाद उसे घेर लेता है।
लौटकर कमरे में आता है तो वह कमरा भी उसे वैसा ही काल-कोठरी जैसा लगता है-डरावना !
इतने दिन हो गए भटकते-भटकते, परंतु कहीं कोई अता-पता दीखता नहीं।
कुछ लोगों की धारणा है कि जब जापानियों ने जेल के किवाड़ खोल दिए तो कुछ कैदी बाहर निकल आए थे।
हो सकता है, उनमें वे भी रहे हों !
पर बाहर निकलकर फिर कहां गए? कहीं तो कोई सुराग मिलता?
बाद में जापानियों ने जो नृशंस हत्याएं की, हो सकता है, उसमें वे भी मौत के घाट उतार दिए गए हों !
जीवित होते तो बाहर आकर कभी तो घर कोई पत्र भेजते !
यहां दामोदर नाम के क्रांतिकारी का कहीं कोई अवशेष नहीं दीखता। सड़कों पर, बस्तियों में घूमता हुआ, वह हर वृद्ध आकृति के भीतर झांकने का प्रयास करता है, कहीं यही तो नहीं ! कहीं ऐसे ही तो नहीं ! दादी के देवताओं के पास जो चित्र था, यहां की अधिकांश वृद्ध आकृतियां उसे वैसी ही लगती हैं।
उसे कहीं भ्रम-सा लगता। एक प्रकार का दृष्टिदोष...!
कल किसी ने 'लंबा लाइन क्षेत्र में वाजिदा बेगम नाम की एक अधेड़ महिला से मिलवाया था। उनके दादा अनवर आगा। जौनपुरी उत्तर भारत के रहने वाले थे। ‘सेल्युलर-जेल के कैदी जब हमेशा के लिए मुक्त हुए तो वे यहीं रह गए थे... !
"दामोदर पंडत नाम के एक इंकलाबी कैदी का जिक्र तो कभी-कभी किया करते थे हमारे दादाजान, जिन्होंने कैदियों के लिए जंगली घास की बनी हरी सब्ज़ी में से एक बार सांप का कटा टुकड़ा लेकर जेलर बारी को दिखलाया था और विरोध में भूख-हड़ताल की थी...दादाजान कहते थे, जब उनकी पीठ पर चाबुक की मार पड़ी तो चाबुक के चमड़े के साथ-साथ पीठ का मांस भी चिपककर निकल आया था...। सारा कच्चा फर्श लहूलुहान हो गया था...।"
कुछ लोग सुना रहे थे कि जेल से भागे कुछ कैदी आदिवासियों की नाव में, एक झुंड की शक्ल में सागर में निकल पड़े थे। वहां से कहां विलीन हो गए, कुछ अता-पता नहीं...
कमरे में रोशनी जलाकर देखता है-उसके बिस्तर पर भूरे-सफेद रंग की एक चादर-सी बिछ गई है। तमाम बारीक चींटियां भर गई हैं। जो चबैना वह अपने बैग में, जाते समय यों ही पलंग पर धरकर रख गया था, सब गायब है।
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