कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कमरे में जाकर वह दीवारों को अपनी हथेलियों से छू-छूकर देखता है। उस टूटे फर्श को भी छूता है, बार-बार छूता है। उसे दीवारों और लोहे के दरवाजे पर एक प्रकार का स्पन्दन-सा लगता है। लगता है, पीछे से अभी आकर दादा जी कहेंगे, "अरे रामा, तू यहां क्या कर रहा है?"
दरवाजे से लगा, लोहे की एक मोटी-सी रॉड, दीवार के एक हिस्से को छेद कर, दूसरे किनारे तक चली गई है। वहां पर ताला लगाने की व्यवस्था है, ताकि कैदी किसी भी स्थिति में निकल भागने में सफल न हों।
वह बाहर आता है-दूर तक चला गया लंबा बरामदा ! गलियारा एक छोर से दूसरे छोर तक...।
सांझ घिरने लगती है तो वह भारी-भारी कदमों से सीढ़ियों से नीचे उतरने लगता है।
बाहर खुले आंगन में लोहे और पत्थर का भारी-भरकम कोल्हू वैसा-का-वैसा रखा है। दोनों हाथों से ऊपर उठाने का प्रयास करता है। वह जवान होकर नहीं उठा पा रहा है, फिर बूढ़े बीमार दादा जी किस तरह इसे उठाकर, आठ-आठ घंटे बैल की तरह तेल पेरते होंगे?
पास ही कैदियों के नहाने का वह बित्ते-भर का चबूतरा ! नारियल के खोल के टुकड़े में अंजुरी-भर खारे पानी से कैसे नहाते होंगे, उमस भरी दोपहरी में?
पूर्वी छोर पर काठ की एक काली-सी कोठरी अभी भी है। जहां छत पर, लकड़ी के गोल शहतीर पर, नारियल की मोटी रस्सी का गोल फंदा लटक रहा है। नीचे पांवों के पास दो तख्ते हैं। उनके नीचे अंधियारा कुआं-
“लाश के हवा में लटके रहने के लिए तख़्ते तुरंत हटा दिए जाते थे। और फिर बाद में लाश नीचे अंधेरे तहख़ाने में उतार दी जाती थी... !" पास खड़ा कोई कह रहा है।
वह बहरा-सा, गुंगा-सा उस तहखाने को विस्फारित नेत्रों से ताकता रहता है। जहां अभी भी बिखरे हैं, खून के छींटे ! एक मूक-क्रंदन अभी भी कहीं व्याप रहा है।
बोझिल क़दमों से वह आगे निकल जाता है।
सामने की इमारत में, एक बड़े-से कमरे में रखवाली के लिए खेतों में रखे बिजूका की तरह टंगे हैं टाट के फटे कपड़े, लोहे के जंग लगे टूटे बरतन, हथकड़ियां, बेड़ियां सब प्रदर्शनी की तरह सजाकर रखे हैं।
रात को वह खाना नहीं खा पाता।
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