कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कभी-कभी मेरे पास बैठकर बावली-सी कहतीं, “रामा, तू बड़ा हो जाएगा तो तुझे लेकर कालापानी जाऊंगी। फिर वहीं रहूंगी। कहते हैं, साथ में कोई हो तो दुख का भार कुछ कम हो जाता है..।”
वह हंस पड़ता...।
अब दादी नहीं, पर कालापानी आकर उसे लगता है जैसे वे भी कहीं साथ-साथ यहां तक चलकर आई हों। दादा जी के कपड़े पोटली में बांधकर, उन्होंने कितने जतन से रखे थे-सबसे छिपाकर...।
यहां आकर वह कई वृद्धों से मिला, जिनके पूर्वजों का संबंध कालापानी के सजायाफ्ता देशभक्तों से रहा। पर दामोदर नाम के कैदी के विषय में कहीं कुछ पता नहीं चला कि उनके अंतिम दिन किस तरह, कहां बीते !
कहा जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों के आधिपत्य के समय ‘सेल्यूलर-जेल' के कई महत्त्वपूर्ण कागज़ात जला दिए गए थे। हां, लोहे की एक अलमारी में कुछ पुराने धुमरैले कागजों के चीथड़े उसे अवश्य दीखे। किसी तरह अनुमति लेकर, वह उन्हें ही उलटने-पलटने लगा।
कैदियों की सूची में नाम था, पर अधिक विस्तृत विवरण नहीं।
अंत में जीर्ण-शीर्ण पीले रजिस्टर के एक फटे पन्ने पर दीखादामोदर पुत्र टीका राम, ग्राम कुरौला, पट्टी छतारा, जिला... इसके आगे सब कुछ फटा हुआ। हां, नीचे जेल की कोठरी की संख्या अवश्य कुछ-कुछ पढ़ने में आ रही थी-
-कैदी संख्या-अस्सी !
-कोठरी संख्या एक सौ पांच !
वह दौड़ता हुआ जेल की एक सौ पांच नंबर की कोठरी में पहुंचा, हांफता हुआ। लोहे का दरवाज़ा यों ही खुला था। झटके के साथ वह भीतर घुसा।
उस रीती काल-कोठरी में सीलन, धूल और मिट्टी के अलावा अब कुछ भी शेष न था।
खोजती हुई निगाहों से वह देर तक कुछ टटोलता रहा। बाहर, कपाटों के पास पत्थर की दीवार पर एक गोल कुंडा-सा गढ़ा है। कहते हैं-डंडा-बेड़ी' के समय कैदियों को इसके सहारे बांधकर लटका दिया जाता था।
वह देर तक उस कुंडे को अपनी अंगुलियों से सहलाता मूर्तिवत खड़ा रहा।
इस रीते कमरे में अब कोई नहीं रहता, परंतु उसे लगता है जैसे कोई रहता है।
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