कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
इस प्रश्न पर दादी का झुर्रियों से ढका बूढ़ा चेहरा न जाने कैसा-कैसा हो जाता ! उनकी रीती आंखों में अजब-सा वीतराग तिरने लगता। चाहकर भी वे रो न पातीं। कहतीं, "आंसू ही सूख गए हैं रे अब !"
पहाड़-सी कठिन जिंदगी उन्होंने यों ही गुजार दी थी-दादा जी के इंतज़ार में !
जब वे बहुत बूढ़ी हो गईं तो बहकी-बहकी-सी कभी सुनाया करतीं, "लोग गलत कहते हैं रे रामा, तेरे दादा जी अभी जिंदा हैं ! कभी-कभी फिरंगियों की नजरें बचाकर यहां आते हैं...। मुझे अभी भी याद है। हमारे हरि किशन की शादी के दिन मैं कितना रोई, कितना, उन्हें याद कर। बरात को विदा कर जब अपनी अंधियारी कोठरी में लौटी तो देखा, वे ज़मीन पर बिछे ऊनी चुटके में, पहले की ही तरह झक सफेद कपड़े पहने, पालथी मारे बैठे है। पता नहीं कब से इंतजार में..."
"अरे, हरि किशन की इजा, तू इतनी परेशान क्यों है? सब अच्छी तरह से निभ गया न ! कल बहू भी आ जाएगी। घर में फिर चहल-पहल होगी...।"
दादी कहते-कहते फफक पड़तीं, "अपनी हथेली का मांस खाकर मैंने अपने हरि किशन को कैसे पाला, मैं ही जानती हूं ! तुम तो मुंह उठाकर चले गए थे, मैं उनसे गुस्से से कहना चाहती थी, पर मेरे कहने से पहले ही देखती हूं कि वे जा चुके थे। शायद फिरंगियों से पकड़े जाने की आशंका के कारण... ! जब भी आते छिन-दो-छिन इसी तरह छिप-छिप कर कभी भरी आधी रात को चांद के उजास में हमारे बंजर खेतों की मेड़ पर खड़े दीखते। कभी चौराहे के पार, मंदिर की बड़ी सीढ़ियों पर उदास-से गुमसुम बैठे। जब भी कोई विपदा होती, वे सामने खड़े दीखते...! अपने बच्चों का मोह भला किसे नहीं होता रे...!”
दादी की पागलपन की इन बेतुकी बातों पर हम हंस दिया करते थे, "दादी, तुम्हारा भी जवाब नहीं ! बाबू जी कहते हैं, कालेपानी की जेल में भी दादा जी के पांवों में लोहे की बेड़ियां होती थीं। फिर बता, उस बंद कोठरी से यहां वे कैसे आ सकते हैं? पानी के जहाज़ में ही हफ्ता-दस दिन लग जाते हैं...."
इस पर दादी झुंझला पड़तीं, "अरे, मैं कोई झूठ बोल रही हूँ ! अभी परसों ही तो कह रहे थे, सुबह-सुबह नंगे पांव बर्फ पर न चला कर। ठंडे पानी में यों न भीग ! तुम ही बीमार पड़ गई तो इन दुधमुंहे बच्चों का क्या होगा..."
"यह सब तुम्हारा वहम है दादी....!"
"अरे, जैसे अभी तुझसे बातें कर रही हूं, वैसे ही उनसे भी होती हैं। यों ही मुझे पगला रहा है, शैतान कहीं का...!"
दादी गुस्से से रूठकर चुप हो जातीं।
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