लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ

अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

61 पाठक हैं

हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


पर उस सारे दिन वे अपनी फटी धोती के चाल से आंखें पोंछती रहतीं।

अपने पूजा के देवताओं के पास रखे दादाजी के एक धुंधले- चित्र पर रोज़ फूल चढ़ातीं। अक्षत बिखेरतीं। जब तक जिंदा रहीं, उनका यही नेम-नियम रहा।

"हरि किशन, कोई चिट्ठी-पतरी नहीं आई?" वे सहसा कुछ याद आने पर कहतीं, "कहते हैं बरस भर में एक ही चिट्ठी भेजने देते हैं। एक ही पाने। कौन जाने डाकख़ाने की गड़बड़ में कहीं इधर-उधर न हो गई हो !"

पिता जी चुप लगा जाते। क्या उत्तर दें, उन्हें कुछ सूझता न था।

दादी के प्राण दादा जी में बसते थे।

कहते हैं-दादा जी जब ऊन और घोड़ों का व्यापार करने जौलजीबी की तरफ, भोट-तिब्बत की सरहद तक जाते, तब दादी का सारा ध्यान ऊनी कंबलों, थुलमों, भोटिया घोड़ों की ख़रीद-फरोख्त तक सीमित रहता। दिन-रात वे ऊन और घोड़ों की ही बातें करतीं। पर बाद में दादा जी के क्रांतिकारी बनने पर उनकी चिंताओं के विषय भी बदल गए थे।

-कहते है फिरंगी गाय का मांस खाते हैं !

-फिरंगी हमारा धरम-भ्रष्ट करने सात समुंदर पार से यहां आए हैं।

-अब लड़ाई होगी। अपना धरम छोड़ने से तो मर जाना अच्छा। है रे !

वह तब छोटा था। दादी की बातें समझ में न आने पर भी वे अबोध परियों और राक्षसों की कहानी जैसी रोचक लगतीं।

जाड़ों की पीली-पीली गुनगुनी धूप में कभी बाहर आंगन में बैठते, या बाहर बर्फ गिरने पर घर के भीतर लोहे के सगड़ की आग के चारों ओर घेरा बनाकर आग सेंकते, तो दादी खोई-खोई-सी कहतीं-

"तुम्हारे दादा जी को जब जनम-कैद की सज़ा हुई तो मेरी उगर कोई बीस साल थी। तुम्हारा बाप हरि किशन गोदी का बच्चा था... तुम्हारे दादा जी को कालापानी ले जाते समय बेड़ियां भी लगवाईं, तब भारत माता की जै-जैकार से आकाश गूंज उठा था। आदमियों का कैसा गिरदम्म-सा मच गया था। इत्ती भीड़ लोगों ने शायद ही कभी देखी हो... !

"पर रात को मातम-सा छा गया था उस दिन ! आस-पास के सारे गांव-घरों में कहीं चूल्हा नहीं जला था। मंदिर की धूनी रात भर धधकती रही थी। सैकड़ों लोग आग के चारों ओर मौन बैठे रहे...।

"सुबह पता चला कि घाट की डाक-चौकी जलकर राख हो गई है। इस पर फिरंगियों की पलटन आई। क्या-क्या जुलम नहीं हुए निरपराध लोगों पर ! लोग घर-द्वार छोड़कर पहाड़ की खोहों-उड्यारों में छिप गए थे। तब खौंखियाए सिपाहियों ने बस्ती की-बस्ती फेंक डाली थीं...

"उस दिन के बाद मैं रोज़ सामने वाले ऊंचे डांडे तक जाती। वहां से दूर तक सड़क दीखती है न ! उनकी राह देखती..."

"दादी, क्या दादा जी फिर कभी लौटकर घर नहीं आए...?"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book