कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
अगला यथार्थ
कितना कुछ नहीं था मन में, यहां आते समय ! कितने भाव, कितने विचार ! जो संतोष के साथ-साथ कहीं गहरे संताप के भी कारण थे-जिंदगी-भर नासूर की तरह रिसते हुए...
पर यहां आकर वह एक तरह से गूंगा-सा क्यों हो गया है?
अचरज भरी निगाहों से वह चारों ओर देखता है-हर रोज़ उमड़ते-घुमड़ते काले बादलों को। चारों दिशाओं में बिखरे जल, जल-ही-जल को। अब तक शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो, जब बादल न घिरे हों, न गरजे हों, न बरसे हों। थोड़ी-सी झड़ी के बाद फिर एकाएक साफ आसमान। धुली धरती। ठीक सिर पर टकराती चुभती हुई उजली धूप !
अथाह पानी में तैरती-सी हरियाली की हरी-हरी क्यारियां ! दूर-दूर तक छिटके छोटे-छोटे द्वीप! सामने वाला रॉस द्वीप तो ऐसा लगता, जैसे हाथ बढ़ाकर छू लेगा...
वह घंटों विस्फारित नेत्रों से इन्हें निहारता, न जाने क्या-क्या सोचता रहता है। परछाइयों की तरह कई आकृतियां उभरती-मिटती हैं। स्याह-राफेद कई-कई चित्र !
निर्जन-से इन द्वीपों से उसे अजनबीपन के साथ-साथ, कहीं अपनेपन का कोई अदृश्य रिश्ता-सा भी लगता है।
धरती के कण-कण से एक अव्यक्त गहरा आत्मभाव ! एक लंबी निश्वास के साथ, वह आंखें मूंद लेता है।
सच, तब कितना भयानक होगा, वहां का वातावरण ! कल रात देर तक वह उस जेट्टी के पास खड़ा रहा, जहां कलकत्ता से आने वाले जलपोत रुका करते थे। कभी ऐसे ही एक जहाज़ से... एक दिन... ऐसे ही... इसी तरह...
जब तक दादी जिंदा थीं, बहकी-बहकी-सी कितनी बातें बतलाया करती थीं, जैसे आंखों देखा हाल सुना रही हों। "कालेपानी में आकाश को छूते भयानक जंगल होते हैं रे ! जंगल-ही-जंगल ! सांपों, बिच्छुओं, ज़हरीले कीड़े-मकोड़ों से भरे ! जिनका काटा आदमी पानी तक नहीं मांगता... वनों में खूख्वार वन-मानुष तीर-भाले चलाते हैं। आदमियों को भूनकर खा जाते हैं... बिछौने पर, छतों की शहतीरों पर रस्सी की तरह सांप सरकते रहते हैं। धूल के कणों की तरह बारीक सफेद चींटियां देखते-देखते हाथी भी हज़म कर जाती हैं..."
अनपढ़ दादी को, जो जिंदगी भर अपने गांव से बाहर नहीं गईं, ये रोमांचक रहस्यपूर्ण बातें कहां से मालूम पड़ीं, पता नहीं । कहते हैं, पास के गांव का एक लड़का कभी भागकर कलकत्ता गया था। वहां पुलिस में भर्ती हो गया था। कैदियों को लाने-ले जाने के काम से दो-तीन बार कालेपानी तक हो आया था। हो सकता है लौटकर उसी ने सुनाई हों ये बातें !
दादी कभी-कभी स्वयं से बड़बड़ातीं, "नाश हो इनका ! कहते हैं ये राकस गोरे, कैदियों की नंगी पीठों पर चाबुक मारते हैं। खाल उधेड़ देते हैं। शरीर लहूलुहान हो जाता है। ...दिन-रात बरखा-घाम में भी काम-ही-काम, पर खाने को दो रूखी रोटियां तक नहीं... तेरे दादा जी से तो भूख बरदाश्त नहीं होती थी, फिर वहां कैसे रह पाते होंगे रे !" दादी उड़ी-उड़ी-सी आसमान की ओर ताकने लगतीं, "कहते हैं, राकस टाट के चीथड़े पहनने को देते हैं। बीमार होने पर दवा नहीं... मरने पर दो लकड़ियां... हाथ भर कफ़न तक नहीं... तेरे दादा जी उस सर्दी में कैसे रहते होंगे...?" दादी फूट-फूटकर रो पड़तीं तो वे उन्हें समझाते, "वहां सर्दी नहीं पड़ती दादी, बारहों महीने खूब गर्मी रहती है...।"
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