कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
मेरा अनुभव रहा है कि लेखक के लिए संघर्ष अभिशाप ही नहीं होते, बल्कि वरदान भी सिद्ध होते हैं। जो अनुभव, जो अनुभूतियां इन संघर्षों ने दीं, संभवतः उनके ही कारण मेरे लेखन में इतना वैविध्य रहा। मात्र वैविध्य ही नहीं, एक प्रकार की जीवंतता भी।
पर्वतीय ग्राम्यांचल में पैदा हुआ, जिसके कारण गांव की मिट्टी की सुगंध भी रचनाओं में घुली-मिली रही।
कस्बे में पला, बढ़ा। अतः कस्बे के संस्कार, वहां का वातावरण, वहां की समस्याओं की झलक भी उभरे बिना न रही। शेष आधी शताब्दी के महानगरीय जीवन ने और भी अधिक गहन अनुभूतियां दीं। अनेक चलते-फिरते, हंसते-रोते प्रतिबिंब।
'कांछा', 'अगला यथार्थ, 'इस बार फिर बर्फ गिरी तो' आदि में वह परिवेश सहज ही देखा जा सकता है। वहां की आंचलिकता ने मेरी रचनाधर्मिता को एक संस्कार दिया और पारदर्शी दृष्टि भी। अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग नामों से वह आंचलिकता सदैव पनपती रही कहीं माणिक वंद्योपाध्याय या ताराशंकर वंद्योपाध्याय के रूप में, तो कहीं कालिंदीचरण पाणिग्रही अथवा गोपीनाथ मोहंती के नाम से। कहीं तकषि शिवशंकर पिल्लै, या झवेरचंद मेघाणी के नाम से। यदि संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में से प्रेमचंद या प्रेमचंद की परंपरा-यानी आंचलिकता को हटा दिया जाए, तो भारतीय साहित्य की पहचान ही समाप्त हो जाएगी।
शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृतियों का भी भारतीय जन-मानस में कुछ कम व्यापक प्रभाव नहीं रहा। मानव-संबंधों का इतना ऊष्मा भरा आत्मीय अहसास अन्यत्र कहां ! आज की अनेक रचनाओं में वह कमनीयता, आत्मीयता आसानी से देखी जा सकती है-एक दूसरे रूप में।
चेखव का रचना-संसार तो सबसे अलग है। अद्भुत। चेखव की कहानियां सैलाब की तरह नहीं, सुशांत सरिता के शीतल जल-प्रवाह की तरह, मौन-मंथर गति से सबको आप्लावित करती हुई चली जाती हैं। सब पर अमिट प्रभाव छोड़ती हुई।
जो दृश्य नहीं, वह भी दृश्य बन कर घटित होता दृष्टिगोचर होने लगे तो ! 'अगला यथार्थ,' 'अक्षांश', 'जो घटित हुआ' की घटनाएं कल्पना और यथार्थ से आगे के यथार्थ को रेखांकित करती, एक तीसरे आयाम को उद्घाटित करती हैं।
आंखों से जो ओझल हो जाता है, वह समाप्त नहीं हो जाता। उस अस्तित्वहीन का अस्तित्व तब भी बना रहता है। एक सीमा पर पहुंच कर कल्पना और यथार्थ के बीच की विभाजन-रेखा भी धुंधलाने-सी लगती है। साहित्य का सत्य भी हमें कहीं उन्हीं अनछुए शिखरों तक ले जाता है, जहां दृश्य ही नहीं, दृष्टि भी पारदर्शी हो जाती है।
मेरी धारणा है, कहानी को कहानी जैसा उतना नहीं लगना चाहिए, जितना सच जैसा। सच से कहीं बड़ा होता है, कहानी का सच। सच के सच से भी अधिक गहन होता है, उसका प्रभाव। इन रचनाओं को भी किसी परिधि में बांध कर देखना, इनके प्रति न्याय करना नहीं होगा।
गत पचास वर्षों में लिखी कहानियां अनेक संग्रहों में संग्रहीत हैं। उनमें से कुछ का चयन करना कठिन ही नहीं, एक प्रकार से असंभव-सा भी है। यदि मेरी दृष्टि से वे अच्छी नहीं होतीं, तो क्यों उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ देता? फिर क्यों उन्हें पुस्तक रूप में सहेजता? अब उनमें से भी फिर चयन करना। ‘पानी को पानी से धोने' की जैसी जटिल प्रक्रिया से गुजरना !
जो कहानियां तब बहुत अच्छी लगती थीं, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगतीं। इसके विपरीत अनेक रचनाएं आज अधिक अच्छी लग रही हैं, पहले की अपेक्षा। पर ऐसी भी तो कालजयी रचनाएं होती हैं, जिनकी आभा में समय का सत्य सदैव प्रकाशमान रहता है, वे कभी धुंधलाती नहीं। पुरानी नहीं पड़तीं। हर काल, हर देश में वे सदैव प्रासंगिक रहती हैं।
लेव तल्स्तोय की कहानी कितनी जमीन', प्रेमचंद की 'कफन', रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘काबुलीवाला', आदि कहानियां एक दृष्टांत उपस्थित करती हैं।
प्रस्तुत संग्रह की कहानियां अलग-अलग पृष्ठभूमियों पर आधारित हैं। निकट से देखी या जी हुईं भी। प्रयोग के लिए प्रयोग पर मेरी आस्था नहीं रही। यह एक स्वतः प्रक्रिया है। लेखक कहानी नहीं लिखता, कहानी स्वयं को लेखक के माध्यम से लिखवा लेती है।
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- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
- सजा
- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर