कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"क्या मांगा तुमने?” लौटते समय मैंने यों ही पूछा तो तुम्हारे मुंह से निकल पड़ा था, "अपनी मुक्ति !”
तुम्हारे क्लांत चेहरे पर धूप-छांह की तरह कितने ही भाव आ-आकर ओझल हो रहे थे। मन का कोई भाव तुमसे छिपता नहीं। आकृति पर साफ झलक आता है। इसे तुम्हारे हृदय की निर्मलता भी कह सकते हैं, और दुर्बलता भी।
''पोखरा जाने वाला विमान अभी तक भी विराटनगर से आया नहीं !* कोई यात्री परेशान-सा है।
यानी उड़ान में पर्याप्त विलंब है।
जेट और बैलगाड़ियां साथ-साथ चलते देख आश्चर्य नहीं होता। कहां निजी कंपनियों द्वारा संचालित ये आधुनिकतम छोटेछोटे जहाज़ ! कहां कच्ची सड़क-जैसे रन-वे'! ऐसी टूटी-फूटी इमारतें... !
तभी छत पर गड़गड़ाहट-सी होती है।
कोई विमान उतर रहा है, या उड़ान भर रहा है !
"थोड़ा-सा कष्ट और है। मुझे लगता है...!”
तुम्हारे मुरझाए अधरों पर यों ही फीकी-सी मुस्कान उभरी, "यही। न कि वहां जाते ही मैं ठीक हो जाऊंगी- !”
"हां, हां।” मैंने कहा।
“मुझे आपकी आस्था पर पूरा विश्वास है। कुछ भी असंभव मैं नहीं मानती। पर...।”
तभी सब एकाएक उठ खड़े हुए। अपने हैंड बैगं मैंने भी संभाल लिए और सबकी तरह, मैं भी शीशे के बंद द्वार की ओर बढ़ा। जिसके खुलते ही सब बाहर खड़े विमान की दिशा में जाएंगे।
कुछ ही क्षणों में इतने पहाड़, इतनी घाटियां पार कर लीं-सच नहीं लग रहा था।
पोखरा पहुंचे तो बर्फीले पहाड़, सामने दीवार की तरह हमारेस्वागत में खड़े थे। हरे वृक्षों से आच्छादित घने पहाड़ों के उस पार था ‘मांछी पुंच्छ' यानी 'मछली की पूंछ।' पूरी एक धवल श्रृंखला !
विमान से उतरकर क्षणभर तुम स्तब्ध-सी खड़ी देखती रहीं। मंत्रमुग्ध-सी।
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