कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
दुर्गम पहाड़ों को चीरती, धड़धड़ाती हुई ट्रेन आगे बढ़ रही थी ! अनगिनत पहाड़ों की श्रृंखलाएं थीं। उनके बीच में सुरंगें। सुरंगें ही सुरंगें।
“इतनी तेज़ी से तो हमारे यहां मैदानों में भी ट्रेनें नहीं दौड़तीं।” तुम जिज्ञासा से देखती हुई बोलीं।
रेनडियरों के समूह, तुम जीवन में पहली बार देख रही थीं। "ट्रेन की पटरी के साथ-साथ लकड़ी के तख़्तों की यह बाड़ क्यों...?"
"रेनडियरों के झुंड चलती रेल से न टकराएं !” राया ने उत्तर दिया। वह रूस की थी। बतला रही थी कि ऐसा ही दृश्य, ऐसा ही वातावरण उत्तरी रूस के बर्फीले क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।
बर्फ से ढके पहाड़ ! घने जंगल ! फीयोर्ड ! हल्का-हल्का-सा प्रकाश, यानी अंधियारे का अहसास।
उस नीरव वातावरण में ट्रेन बेतहाशा भाग रही थी–भागी चली जा रही थी।
यात्री सोने का प्रयास कर रहे थे-कुछ बैठे-बैठे झूम रहे थे। एक-दो झपकियां मैं भी ले चुका था, पर तुम्हारी आंखें बाहर का परिदृश्य मुग्धभाव से देख रही थीं।
फिर पता नहीं कब पलकें मुंदीं और मैं सो गया !
अचकचाकर जब जागा तो देखा डब्बे में बैठे सभी सहयात्री नींद के आगोश में हैं। तुम भी सबकी तरह गहरी निद्रा में।
घड़ी में देखा रात्रि के तीन बज रहे थे। खिड़की से बाहर झांका तो मैं देखता रह गया।
तरह-तरह का रंगीन प्रकाश कुहरे की तरह उमड़ता हुआ आकाश में बह रहा था। एक के बाद एक लहर की तरह।
मैंने तुम्हें जगाया तो तुम गहरी निद्रा में थी। अचकचाती हुई जागीं। औरों की नींद में बाधा न पड़े, इसलिए इशारे से कहा, "बाहर देखो !"
आंखें मलती हुई तुम देखने का प्रयास करने लगीं, "अरे, यह क्या है? हम कहां हैं?"
बाहर बंदरगाह का दृश्य था। लिखा था-मोइजन फ़ीयोर्ड !
ये रंगीन बादल !”
“हां, इन्हें 'मेरु-प्रभा' कहते हैं। ध्रुव-प्रदेश में सर्वत्र ऐसे बादल दीखते हैं।” बतलाता हूं।
लग रहा था ट्रेन अब टनल से निकलकर पहाड़ के ऊपर पठार की पीठ पर भाग रही है, आकाश की दिशा में उड़ने को आतुर।
तभी धीरे-धीरे ट्रेन रुकती है और एकदम खड़ी हो जाती है। ट्रेन में घोषणा होती है: “अब आप 'पोलर सर्किल' में प्रवेश कर रहे हैं-ध्रुव प्रदेश में आपका स्वागत है !”
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