कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"काहिरा पहुंचकर भिजवा दूंगी...।” लगा कि जैसे तुमने कहने भर के लिए कहा।
धूप अब और धीमी हो रही थी।
बस के पहिए फिर घूम रहे थे। अधिकांश के हाथ में गर्म चाय से भरे प्लास्टिक के सफेद गिलास थे। वे पीते-पीते बाहर के दृश्यों का आनंद ले रहे थे।
किसी ने जापानी म्यूजिक का कैसेट लगा दिया था। गायिका चीख़ती हुई-सी क्या गा रही है, किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था-केवल दो-तीन जापानियों के अलावा।
रास्ते में यहां भी भेड़ों के झुंड दिख रहे थे। लंबे-लंबे झबरैले बाल। गोल-गोल सींग।
“ये भेड़ें यों ही घूमती रहती हैं क्या?" तुमने कहा, “इनके साथ कोई गड़रिया नहीं दिखता।”
“हां, यहां गड़रिये नहीं होते। भेड़े स्वच्छंद रूप से जंगलों में घूमती रहती हैं।”
“शेर, बाघ या अन्य हिंस्र पशु...!” तुमने मासूम बच्ची की तरह देखते हुए भोले-भाव से कहा।
तुम्हारी मासूमियत पर मैं हंस पड़ा।
"शेर, बाघ नहीं होते यहां के जंगलों में। हां, कभी-कभी आस-पास के देशों के जंगलों से भागकर आए लकड़बग्घे अवश्य दिख जाते हैं..। दो-तीन महीने तक ये भेड़े ऐसे ही स्वच्छंद वन-विचरण करती रहती हैं। फिर समय आने पर इनके मालिक इन्हें हांककर, ले। जाते हैं और अपने सुरक्षित बाड़ों में बंद कर देते हैं...।”
टेलीमार्क पहुंचे तो शाम हो आई थी। शाम भी शाम-जैसी नहीं। गर्मी के दिन थे। एक तरह का उजास-सा धुंध की तरह बिखरा था।
रात यहीं बितानी थी। अतः अपने सामान के साथ सब एक-एक कर उतरने लगे। यहां 'गेस्ट हाउस में सबके लिए कमरे पहले से ही निर्धारित थे।
हाथ-मुंह धोने, कपड़े बदलने के बाद सब भोजन की मेज़ पर जुटने लगे।
"नार्वे में लोग शाम का खाना इतनी जल्दी खा लेते हैं कि कभी-कभी तो रात को भूख-सी लगने लगती है।” तुमने अपने गले में लाल-पीला रेशमी स्कार्फ लपेटते हुए कहा।
“जैसे अफ्रीकी-एशियाई देशों के लोग शाम के भोजन के पश्चात किचन से सैंडविच, दूध की बोतलें या फल ले जाते हैं रात के लिए, उसी तरह तुम भी अपने लिए पैक कर लिया करो। विलिंड्रन से बाज़ार भी तो कम दूरी पर नहीं है।”
सब अपनी-अपनी टोलियां बनाकर इधर-उधर घूमने के लिए जाने लगे थे। नोर्मा तुम्हें बुलाने आई, पर तुमने अपना कुछ और कार्यक्रम बतलाया।
“क्या यहीं बैठे रहने का इरादा है? आस-पास की कोई जगह देख आते !" तुम्हारा स्वर कुछ भारी-भारी-सा लग रहा था।
थकान थी, बाहर चलने का मन नहीं हो पा रहा था।
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