कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
तुम देर तक ख़ामोश रहीं, कहीं गहरे में खोई। फिर खिड़की से बाहर झांकती हुई बोलीं, “सबके कंधों पर अपने-अपने सलीब हैं। उन्हें ढोना, अंतिम सांस तक ढोए जाना, यह हम सबकी नियति है। क्या तुम्हें नहीं लगता?"
मैं चुप था। तुम भी उसी तरह फिर चुप। बस के चलने की आवाज़ के अलावा और कुछ भी नहीं था। हॉर्न की भी आवाज़ नहीं। यहां हॉर्न बजाना किसी को अपरोक्ष रूप में गाली देने का पर्याय माना जाता है। बड़ी अजीब बात है !
“पति अलग रहते हैं, दूसरी पत्नी के साथ।” तुम्हारी डूबती हुई आवाज़ जैसे किसी कुएं में से आ रही थी, “मेरे दो बच्चे हैंअबीरा और साहिल। अपनी जिंदगी तो जैसी भी है, मैं जी ही रही हूं पर मेरी एक ही तमन्ना है, उन्हें कुछ बनाने की। अबीरा डॉक्टर बनना चाहती है, और साहिल इंजीनियर...।”
तुमने अपने हाथ का चांदी का जैसा कड़ा मेरी ओर बढ़ाया, जिस पर रोमन में 'अबीरा खुदा था।
"परसों रात अबीरा का ही फोन था। कह रही थी वहां बर्फ बहुत पड़ती है। रात को बाहर खुले में न जाना। पिछली बार तुम अल्जीरिया गई थीं, तो कितनी बीमार होकर लौटी थीं !"
“बच्चे बहुत प्रेमल हैं। मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। साहिल कहता था, “मैं पहली ही प्रवेश परीक्षा में आ जाऊंगा, मम्मी ! इंजीनियर बनकर क़ाहिरा में तुम्हारे लिए बड़ा-सा बंगला बनाऊंगा। फिर हम लक्सर में नहीं रहेंगे...!"
तुम्हारी बातें मुझे बहुत अच्छी लग रही थीं। संघर्षों से निकले बच्चे समय से पहले ही कितने परिपक्व हो जाते हैं !
"बस केवल पंद्रह मिनट यहां रुकेगी। हल्के चाय-पान की व्यवस्था है। ठीक सवा पांच बजे गंतव्य के लिए रवाना होगी।” बस में इस उद्घोष के पश्चात, सहसा बस रुकी। यहां थोड़ी-सी ऊंचाई पर एक वृत्ताकार चबूतरा-सा बना था। जहां से चारों ओर का विस्तृत विहंगम दृश्य दिखता था।
पहाड़ों के पश्चात पहाड़। फिर पहाड़। अनेक सतहें एक साथ दिखतीं, जो धीरे-धीरे धुंधले नीले रंग में परिवर्तित हो, कहीं क्षितिज में विलीन हो जाती हैं। नीला रंग धीरे-धीरे धुंधला होकर, एक पेंटिंग का-सा अहसास जगाता है।
तुमने कैमरा पहले से निकाल रखा था। मेरे अनजाने में तुमने कुछ दृश्य कैद कर लिए थे। फिर उसे घानावासी जोजफ की ओर बढ़ाते हुए कहा, “प्लीज़ एक चित्र हम दोनों का...।”
दो चित्र लिए जोजफ ने।
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