कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
बड़े-बड़े गोल चिकने सफेद पत्थरों से पटा था यह सारा द्वीप। मैंने एक छोटा-सा पत्थर ऊपर उठाया। तुम्हें समझाते हुए कहा, "आज से लाखों साल पहले 'हिमयुग' में ये पत्थर लुढ़कते-लुढ़कते यहां तक आए होंगे। हिमनदों के साथ बहते-बहते। देखो, कितने चिकने हो गए हैं !
अपने हाथ में उसे लेकर तुम उसकी ओर निर्निमेष देखती रहीं। और फिर धीरे से तुमने उसे लौटा दिया।
आगे चलकर मैंने देखा-पत्थरों के उस ढेर में से दो खूबसूरत चिकने पत्थर तुमने छांटकर उठाए और अपने पर्स में रख लिए।
मैं सोचता रहा, उन पत्थरों का तुम क्या करोगी? अपने साथ काहिरा ले जाओगी। वहां अपने ड्राइंग-रूम में सजाकर रखोगी? अपने किसी अंतरंग मित्र को 'नार्वे की सौगात' के रूप में दोगी? या अपने दोनों बच्चों को उपहार स्वरूप या अपनी इस यात्रा के स्मृति-चिह्न के रूप में छिपाकर रखोगी। कभी...
हम चुपचाप चल रहे थे। पत्थरों के अंबार से होते हुए। प्रकाश-स्तंभ के ऊपर से यह सारा परिदृश्य कितना अलग लग रहा था !
“क्या संयोग का ही दूसरा नाम जीवन नहीं?" तुम जैसे मुझे सुनाकर अपने से पूछ रही थीं। "हम इन दृश्यों को इस जीवन में संभवतः दोबारा कभी भी नहीं देख पाएंगे..."
स्वचालित यंत्र की तरह हम धीरे-धीरे उस छोर की ओर जा रहे थे, जहां हमारे सहयात्री खड़े बतिया रहे थे। आगे प्रस्थान की तैयारी में अपने झोले अपने हाथों या कंधों में उठाए।
"वे शायद हमारी प्रतीक्षा में हैं। गाड़ी के प्रस्थान में अब मात्र पांच मिनट हैं।”
पांव अब और तेजी से बढ़ने लगे थे। लोगों ने क़तार की शक्ल में खड़े होकर बस में बैठना प्रारंभ कर दिया था।
इजराइल की नोरा के हवा में बिखरे बाल, सूरज की स्वर्णिम किरणों की आभा में और अधिक चमक रहे थे।
सब अपनी-अपनी पहले वाली सीट पर बैठने लगे।
मैंने खिड़की वाली सीट तुम्हारे लिए रखी तो तुमने मना कर दिया था, सिर हिलाकर।
“कल थोयन जाते समय ट्रेन में तो कह रही थीं कि तुम्हें खिड़की वाली सीट अधिक सुविधाजनक लगती है।”
“वह ट्रेन की बात थी...।”
मैं तुम्हारे मनोभावों को भली-भांति समझ रहा था। तुम क्यों कह रही हो, किस प्रयोजन से, इसके अंतर्निहित भाव को भी।
मैं खिड़की से बाहर के दृश्यों में कहीं वह सब खोज रहा था, जो मेरे अंतर में, किसी दूसरे रूप में घटित हो रहा था। छोटे-छोटे बिंब नए आकार में प्रतिबिंबित हो रहे थे। तुम जिज्ञासु शिशु की तरह वह सब सहेजने की कोशिश कर रही थीं, जो तुम्हारी समझ से परे के तुम्हें लग रहे थे।
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