कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
“यहीं बैठते हैं," मैंने जैसे अपने से कहा।
पानी बहुत गहरा है...।” तुमने कहा तो मैं तुम्हारी ओर देखते हुए शरारत से बोला, “यह तो और भी अच्छा है। डूबने में सुविधा होगी।”
प्रत्युत्तर में तुम मौन रहीं। मैंने देखा-तुमने अपने दांतों के बीच अपना निचला रेशमी होंठ दबाया हुआ है। अपनी कंचे जैसी गोल-गोल चमकीली नीली आंखें घुमाती हुई, कटखनी बिल्ली की तरह घूरकर मेरी ओर अपलक देख रही हो।
हौले-से तुम्हारे बिखरे सुनहरे बालों को सहलाया तो तुम अनायास मुस्करा पड़ीं।
एक-दूसरे के हाथ का सहारा लेकर धीरे-से हम लपककर पत्थर पर बैठे तो मैं अचरज से चारों ओर निहारता रहा। जहां तक दृष्टि जाती, वहां-वहां तक बांहें पसारे थे-बर्च और देवदार के हरे जंगल ! आसमान को छूते वृक्ष, सूर्य की तापहीन असंख्य किरणें उनसे छन-छनकर आती जल में झिलमिला रही थीं। प्रशांत जल कहीं पारे की तरह चमक रहा था तो कहीं जल में पड़ती किरणों से अनगिनत सफ़ेद चिनगारियां-सी फूट रही थीं।
बहुत-से वृक्ष झील पर उतर आए थे, नहाने के लिए, अपनी शाखाओं और पत्तियों के साथ तिरते हुए। जिनसे जल का हरा रंग कहीं और गहरा हो आया था। वृक्षों के नीचे, वृक्षों का प्रतिबिंब। नीले आसमान की नीली प्रतिच्छाया। हवा से हिलती हुई टहनियां, सूई की नोक जैसी नुकीली, कांपती हुई पतली पत्तियां। लग रहा था-आसमान, धरती, जल सब एक ही चित्र के अनेक आयाम... नहीं-नहीं एक ही आयाम हैं, अनेक चित्रों के प्रतिबिंबन के।
दाहिनी ओर, दूर पहाड़ी ढलान पर तितलियों की तरह कुछ रंग-बिरंगी छायाएं हिल-डुल रही हैं। सिमटा-सा, दबा कोलाहल भी उस नीरवता में कहीं बहुत भारी लग रहा था। धीरे-धीरे आवाज़ निकट आती हुई सी लग रही थी-हंसने और बोलने के जैसे स्वर । शायद कुछ बच्चे जंगली स्ट्राबेरियां तोड़ रहे थे।
अनियंत्रित ऊंचे स्वर में वे शायद कुछ गा रहे थे। गिटार का जैसा चीख़ता स्वर था-टूटा-टूटा ! खंडित जाज !
तभी सहसा तुमने हौले-से एक कंकड़ी पानी में टप्प-से डाली, तो अनायास एक वृत्त-सा विस्तार लेने लगा। उस निरंतर विस्तृत होते वृत्त के अक्स में तुम न जाने क्या-क्या खोजने लगी थीं !
पानी में झिलमिलाते प्रकाश के कारण अनेक आकृतियां आकार ले रही थीं-सांप की केंचुल-जैसी।
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