कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
सागर तट के शहर
हां, उस दिन भी इसी तरह निरभ्र नीले आकाश में धुनी हुई कपास के कुछ सफेद फाहे-से बिखरे थे-हवा में तिरते हुए। ठंडी धूप बहुत मीठी लग रही थी, अच्छी। अच्छा लग रहा था सारा परिवेश। धुला-धुला ! खुला-खुला तिलिस्म भरा !
मैं अचरज भरी निगाहों से एक नया संसार देख रहा था।
पता नहीं बातों-ही-बातों में, कैसे हम घूमते-घूमते इतनी दूर निकल आए थे ! कल इंग्रिड ने बतलाया था कि शाम को कालजुहान रोड पर कछ क्षण भटकने के पश्चात वे सॉगसवान झील की दिशा में निकल पड़े थे-नोरा, इना और राल्फ। वहां जंगली स्ट्रॉबेरी की ढेर सारी झाड़ियां थीं। उन्होंने जी भरकर खट्टी-मीठी स्ट्रॉबेरियां खाईं और कुछ तोड़कर अपने साथियों के लिए लाना भी नहीं भूलीं।
उसने पॉलीथिन का छोटा-सा भूरा लिफ़ाफ़ा मेरी ओर बढ़ाया तो मैंने बैंक्स के बदले नार्वेजियन में थूजन थक् कहा तो इस पर सब एक साथ हंस पड़े थे।
पता नहीं क्यों मुझे अहसास हुआ कि जैसे तुम्हें यह सब अच्छा नहीं लगा। मैंने खुला लिफाफा तुम्हारी ओर बढ़ाया तो तुमने महज़ शिष्टाचारवश चखने के लिए एक छोटी-सी स्ट्रॉबेरी उठाई और शेष लौटा दीं।
"स्ट्रॉबेरियां अमूमन इतनी मीठी नहीं होती...।” इना कह ही रही थी कि ओले पीटर ने बात काटते हुए कहा, "नोरा की पतली, नाजुक उंगलियों के स्पर्श से इनकी मिठास बढ़ गई होगी। इस बार फिर हंसी बिखरी और लगा कि ढेर सारी रेजगारी पत्थर के फर्श पर बिखर गई हो।
नोरा ताली बजाती हुई देर तक हंसती रही।
निर्जन-सा यह झील का छोर अच्छा लग रहा था-अपने नैसर्गिक सौंदर्य के कारण। इतनी हरियाली, इतना स्वच्छ नीला आसमान, इतना निर्मल जल, धुला-धुला सा इतना उज्ज्वल प्रकाश। मंत्रमुग्ध-से हम अनायास आगे बढ़ रहे थे। चलते-चलते जब कुछ समय बीत गया तो पांव विश्राम के लिए ठौर ढूंढ़ने लगे।
तुमने नन्ही बच्ची की तरह चहकते हुए कहा, "ओ, ओ, उस किनारे ! बर्च के तिरछे वृक्ष के पास... उस बड़े-से सफेद पत्थर के सामने...।”
हरी मुलायम घास के नमदे-से बिछे थे। स्पंज जैसी घास पर चलना कहीं बहुत अच्छा लग रहा था-एक सुखद, कोमल अहसास!
हरियाली के बीच में, झील के किनारे से लगा, हाथी की पीठ जैसा खुरदरा पत्थर पसरा हुआ था, तीन ओर से जल में डूबा हुआ।
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