कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कांछा ने रोज़ की तरह पहले अंगीठी में लकड़ी की छोटी-छोटी गिट्टियां लगाईं। फिर उसके ऊपर पत्थर के टूटे कोयले। पर आग थी कि आज जलने का नाम ही नहीं ले रही थी। गीली लकड़ियों से केवल धुआं उमड़कर रह जाता। अंगीठी के पास बार-बार मुंह ले जाकर फेंक मारने से आंखें लाल हो गई थीं। उनसे पानी बह रहा था। मैली, फटी आस्तीन से लगातार आंखें पोंछता हुआ, वह बहती नाक सुड़क रहा था।
लाला गुल्लक के पास, गद्दी पर बैठा, देर तक यह तमाशा देखता रहा-भीतर-ही-भीतर सुलगता रहा। तभी एकाएक पता नहीं क्या क्रोध चढ़ा उसे ! बिदके सांड़ की तरह उछलता हुआ कूदा। अंगीठी पर लात जमाकर उसकी ओर मुड़ा। दो हाथ उसके लगाकर, पिल्ले की तरह कान घसीटता हुआ, सड़क के उस पार तक छोड़ आया, “ससुरा, कमजात ! खावे है किल्लो-किल्लो भात भकर-भकर ! काम के नाम पर जे हाल ! अंगीठी भी ससुरे को जलानी ना आवे है !...निकल्जा...निकल्जा साले ! अब इधर फटका तो हरामज़ादे की दोनों टांगें तोड़ दूंगा..."
आस-पास की दुकानों के लोग, सड़क पर चलते सभी मुसाफ़िर इकट्ठा हो गए थे-लाला हरदुआरी लाल का तमाशा देखने के लिए।
तहमद की लांग ऊपर बांधकर स्वयं अंगीठी सुलगाने में जुट गया, गालियां बकता हुआ।
सड़क के दूसरे किनारे पर, बगीची की दीवार के पास, अमियां के बूढ़े पेड़ के तले, पत्थर पर बैठा कांछा कुछ देर तक सिसक-सिसककर रोता रहा। बारिश की बौछारें जैसे ही फिर तेज़ हुईं, वह पेड़ से सटकर खड़ा हो गया। पानी की मोटी-मोटी लकीरें शाखाओं से सरककर तने को भिगोने लगीं तो वह दौड़ता हुआ टेसन की ओर मुड़ा। प्लेटफार्म के नीचे खड़ा होकर भय से चारों ओर देखने लगा।
प्लेटफार्म के किनारे, समतल पर, दूर तक लोहे की दोहरी पटरियां बिछी हैं। उनके दोनों किनारों पर पत्थर की छोटी-छोटी गिट्टियां बिछी हैं–धूल, राख और कोयले के कारण एकदम काली लग रही हैं। बहुत-से कुली अपने कंधों पर चिरी हुई लकड़ी के शहतीर उठाए, पटरी पर रखे लोहे के खुले डब्बों में चढ़ा रहे हैं-नीचे बल्लियों का खड़ा पुल-सा बना रखा है, जमीन से डब्बे तक चढ़ने के लिए। दूसरी ओर की पटरी पर भी कुछ खुले डब्बे हैं, जिनमें मजदूर गोल-गोल, बड़े-बड़े सफेद चिकने पत्थर भर रहे हैं। ऐसे पत्थर तो नदी के किनारे-किनारे कितने बिखरे रहते हैं, कोई पूछता तक नहीं। फिर इन्हें इस तरह कहां ले जा रहे होंगे? क्या करेंगे। इनसे?
दाहिनी तरफ लकड़ियां-ही-लकड़ियां ! तरतीब से, अलग-अलग चट्टे बने हैं। जंगल में तो ऐसी कितनी लकड़ी पड़ी रहती है ! एक मरियल-सा कुत्ता कूड़े के ढेर में से पत्तलें नोच रहा है...बरखा के पानी में भीगे कुछ मज़दूर सिर छिपाने के लिए, दौड़ते-हांफते उस ओर आ रहे हैं, जहां वह बैठा है...
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- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
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- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर