कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
मां के रक्त-रंजित, क्षत-विक्षत शव को सफेद कपड़े में लपेटते हुए... नदी के किनारे उठाकर ले जाते हुए... शव को पानी में धोते हुए... लकड़ी के ढेर के बीच मां की लाश रखते हुए... और अंत में धुंधू कर जलते हुए।
दाह-क्रिया में ही सांझ हो गई थी।
नहा-धोकर सब घर की ओर बढ़ने लगे तो उनके पीछे-पीछे उदास कांछा भी चलने लगा–तीखी चढ़ाई में हांफता-कांपता हुआ। हताश। निराश।
सब अपने-अपने घरों में चले गए, पर कांछा देर तक बटिया पर ही खड़ा रहा-किंकर्तव्यविमूढ़। किसके घर जाए? कहां? उसकी समझ में नहीं आ रहा था। पत्थर के जिस मकान में मां एक दिन उसे लाई थी, उसने कभी भी उसे घर नहीं माना। पर अब तो मां भी नहीं रही !
किसी वीरान घर के दालान में वह बैठ गया। सारी रात घुटनों में सिर छुपाए, ठंड से ठिठुरता हुआ बैठा रहा।
सुबह उदो-उदो से पहले ही वह निकल पड़ा। सामने जो भी रास्ता दिखा, बढ़ता चला गया।
भूखा-प्यासा ! थका-मांदा ! सारा दिन वह चलता रहा।
रात के अंधियारे में जिस घर के कच्चे आंगन में उसके पांव ठिठके, वह किसी हद तक परिचित था। पहले भी यहां रहा था। मां तब स्वयं पहुंचा गई थी...
उसे देखकर मामा का मन पसीज उठा, पर मामी का व्यवहार सहसा कटु हो आया, “यह बला भी हमारे ही गले लटकनी थी ! अपने ही बच्चों को पालना कठिन है, उस पर यह मुसीबत !”
"अरे, गाय-डंगर चरा देगा। घर का भी कुछ काम-काज कर देगा कभी ! यह मुला-ठुला अकेला कहां जाएगा?...फिर यह भी तो सोच कि एक नौकर मिल गया मुफ्त का...।”
चॉक में बैठे कांछा ने जैसे सुनकर भी कुछ सुना नहीं। उसकी बड़ी-बड़ी निरीह आंखों में एक पूरा रेतीला टीला समा आया था। उससे चाहकर भी कुछ बोला नहीं जा रहा था। जड़वत वह शून्य में ताक रहा था...
अपने हिस्से की बची-बचाई रोटियां या मुट्ठी-भर चिउड़े, एकाध तिल के लाडू मां छिपाकर उसकी फटी जेब में डाल जाती थी। कभी-कभी चा का गरम पानी निगलने के लिए मिली गुड़ की गीली डली भी। रूखे सिर पर हाथ फेरती हुई कहती, "कैसे लंबे-लंबे बाल बना लिए हैं, झुप्पू के जैसे ! चोटी पर गांठ तो पाड़ लिया कर ! चोटी तब खुली रखते हैं पगले, जब मां-बाप मरते हैं, अभी तो मैं जिंदा हूं रे.. !”
दोनों हथेलियों में मुंह छिपाकर वह न जाने कब तक बैठा रहा, गूंगे पशु की तरह...
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- कथा से कथा-यात्रा तक
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