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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


रात को खेतों से लौटने के बाद नए बाप ने इतनी बेरहमी से मारा कि उसके नवनीत-से सुकोमल, गोरे गालों पर पांचों उंगलियों की छाप पड़ गई थी।

हरामी का छोरा, अब और लापरवाही करेगा?"

"न...हीं... !”

रात को रूखी रोटी भी न देकर उसे गोठ में-पशुओं के साथ बंद कर दिया था।

खाना खाकर जब सब सो गए, तो गाय-बछियों को घास डालने के बहाने मां नीचे उतरी। कांछा पयाल के ढेर के ऊपर गुमसुम-सा लेटा था।

"कां-छा-?"

मां ने हाथ में थमी धुंधली लालटेन ऊपर उठाकर देखा। कांछा के मुरझाए चेहरे की ओर क्षण-भर देखती रही अपलक। बगल में छिपाई दो सूखी रोटियां उसकी ओर बढ़ाईं। उसके बर्फ-से ठंडे माथे को प्यार से सहलाया, “तुझे सचमुच यहां अच्छा नहीं लगा रे...?"

"अपने मामा के यहां जाना चाहता है? ...वहां भरपेट रोटी न भी मिलेगी, पर मार तो नहीं पड़ेगी... !”

“तो चल, अपने गांव लौट चलें? दो-चार खेत हैं रूखे, सिर छिपाने के लिए छानी। जैसे अब तक गुजारा चलता था, आगे भी चला लेंगे..."

"...!"

"अरे, तू रो रहा है कांछी?” उसके माथे पर अपना माथा टिकाकर मां भी रो पड़ी-जोर से।

दो-ढाई महीने ही अभी बीते होंगे।

जाड़ा जा रहा था, पर सूरज वैसा ही ठंडा था-बुझा हुआ। हवा भी वैसी ही सनसनाती हुई, छीलती। पर धीरे-धीरे पहाड़ों का रंग बदलने लगा था। बांज, खरसू, बुरांश के मोटे-मोटे खुरदरे पत्तों के स्थान पर अब फिर नई-नई कोंपलें थीं। चारों ओर हल्की-हल्की हरियाली उभरती हुई।

मां एक दिन पशुओं के लिए घास लाने जंगल गई थी कि छिछली चट्टान पर बिछे चीड़ के घुसले पिरोल पर पांव फिसला और वह घास के गट्टर के साथ गठरी की तरह लुढ़कती-ढुलकती गहरी, अंधेरी घाटी में समा गई थी-जहां छन-छन, मन-मन करती नदी बहती थी। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से घिरी पाताल-सी गहरी घाटी के ऊपर चीलें उड़तीं तो डर लगता, कहीं गिर पड़ीं तो !

दूसरे दिन किसी तरह गांव के लोग नीचे उतरे तो वहां क्षत-विक्षत अवशेष मिले। शव को ऊपर लाकर भी क्या करते ! अतः वहीं नदी के किनारे पर बह कर आई चीड़ की लकड़ियों के ढेर में उसे जला दिया था।

लोगों के साथ-साथ कांछा भी सबके पीछे-पीछे नीचे उतर आया था। अपनी मां का शव देखकर, वह फूट-फूटकर रोने लगा तो पास खड़े किसी व्यक्ति ने हाथ पकड़कर झिड़क दिया था, "कानि का छोरा !" उपेक्षा से गाली फेंककर आगे न रोने की चेतावनी भी दे दी थी।

कांछा दूर खड़ा सजल नेत्रों से देखता रहा।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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