कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
पीठ पर बंधे बांस के लंबे डोक्के में कपड़े-लत्ते, बरतन-भांडे समेटकर वह आगे-आगे चल रही थी। उसके पीछे पिट्ठू लटकाए, बांस की लंबी लाठी टेकता हुआ देवी गुरंग। सबसे पीछे, अपने टखनों तक बाप का फटा सूती कोट लटकाए कांछा-जाड़े से थर-थर कांपता हुआ-पीठ पर पोटली बांधे।
सारी बटिया सफेद पाले की मोटी परत से ढकी थी। उस पर चलते-चलते उसके मुट्टी के बराबर छोटे नंगे पांव सुन्न हो रहे थे। वह बार-बार किसी पत्थर पर, पांव झटकते हुए तलवे रगड़ रहा था, ताकि संज्ञाशून्य होते पांवों में तनिक ताप आए !
मुंह से गहरी भाप उठ रही थी, हल्के कुहासे की तरह। फटे कोट की लंबी जेबों में उसने अपने दोनों हाथों की बंद मुट्टियां ढूंस रखी थीं, बांट-बट्टे की तरह। दाहिनी जेब के अंतिम सिरे में रामबांस की पतली-सी रस्सी का वह टुकड़ा भी था, जिससे वह कभी अपनी नन्ही बकरी को बांधा करता था !
ठीक मकई के खेत पर रखवाली के लिए खड़े किए गए। पुतले-जैसा लग रहा था वह !
गुरंग इससे पहली बार उसके लिए जो कपड़े लाया था, उसने छुए तक न थे।
कहां जा रहे हैं? किधर? उसकी समझ में न आ पा रहा था।
नीचे, गहरी, अंधेरी घाटी की ओर वे तीनों चुपचाप आगे बढ़ रहे थे। रास्ता ऊबड़-खाबड़, कच्चा ! सारे वन में धुंध-सी छाई थी-सफ़ेद धुआं-जैसा ऊपर की ओर उठ रहा था। किसी पक्षी का ‘घुग्घू उदास स्वर बिखरकर, वातावरण में और भी उदासी फैला रहा था। बटिया के किनारे-किनारे एक लोमड़ी अपनी झब्बेदार दुम दबाए भाग रही थी। कुछ कदम चलने के बाद, पलटकर फिर पीछे देखती और उसी गति से लपक-लपककर दौड़ती हुई आगे बढ़ती। लंबी पूंछ वाला एक बड़ा-सा.रंग-बिरंगा पक्षी बुरौंज की एक टहनी से उड़कर झप्प-से दूसरी पर बैठ गया था...
कांछा को ठोकर लगी, वह गिरते-गिरते बचा कि तभी गुरंग ने गुस्से से देखा, "आंख देखकर नहीं चलता कानि का छोरा !
मरने पर ही उतारू है तो कुत्ते के पिल्ले, नीचे नदी में छाल मार ले !”
कांछा के पांव का एक नाखून नीला पड़ गया था। असह्य वेदना से तड़पता हुआ वह किसी तरह आंसू रोके रहा–गुरंग की मार के भय से।
नया इलाक़ा। नया गांव। नया घर। नया पिता। नया परिवारउसे अजीब-सा लग रहा था-एकदम अपरिचित। बेगाना।
मकान पक्का था-पत्थर का। नीचे गोठ में पशु बंधते, ऊपर की मंज़िल में लोग रहते। घर, कांछा के अपने घर से बड़ा था, पर यहां रहने वालों की संख्या भी कम न थी। घर की मालकिन के अपने ही सात बच्चे थे-वह स्वयं मां से अधिक, दादी लगती थी। सुरकने वाले कपड़े के बटुए-जैसा मुंह था, जो दिन-रात हर समय खुलता-बंद होता रहता। गालियों का सिलसिला भी अबाध चलता। जब से मां के साथ वह पहुंचा है, कहते हैं, उसका तीखा-कर्कश स्वभाव और भी तीखा हो गया है। घर में हर समय युद्ध की-सी भयावह स्थिति !
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