कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
जब-जब गुरंग आता, पता नहीं क्यों उसे एक विचित्र-सी बेचैनी घेर लेती थी !
उसे गुरंग ही नहीं, कभी-कभी तो मां भी अच्छी नहीं लगती थी। पता नहीं क्यों एक अदृश्य शंका उसके मन के किसी कोने में घर कर गई थी-एक मूक वितृष्णा। कभी-कभी वह परेशान-सा हो उठता।
दूसरे दिन गुरंग पास के ही गांव के किसी रिश्तेदार से मिलने गया था। मां घर के जूठे बरतन समेट रही थी, “कांछा, तेरी तबीयत तो ठीक है न !”
कांछा ने जैसे सुना नहीं। अपनी छोटी-सी गुलेल पर वह कसकर तागा बांधता रहा।
"अपने देवी चाचा के साथ चलेगा-उनके घर? वहां गाय हैं। भैंस हैं। तेरे खेलने के लिए बकरियां भी हैं-छोटी-छोटी..।"
कांछा इस बार भी उसी तन्मयता से लगा रहा।
“तेरे चाचा कहते हैं, वहां पक्का मकान है। लंबा-चौड़ा आंगन। दाड़िम, अखोड़, संतोल के पेड़ हैं...।
"और कुछ भी न मिला तो कम-से-कम भरपेट रोटी तो मिल जाएगी–दो छाक। तन ढकने के लिए फटे-पुराने कपड़े... यहां किसके सहारे रहें रे? तेरे पिता को गए, इत्ते दिन हो गए... जिंदा होते तो क्या अब तक घर न लौटते...?" मां का गला भर आया था।
"तू जा... मुझे कहीं नहीं जाना...!” वह अभी गुस्से से कह ही रहा था कि मां उसके भोले-भाले चेहरे को, उस पर उभरती-उतरती गुस्से की रेखाओं को देखती रही। फिर झट-से उसे प्यार से चूमती हुई बोली, “यहां क्या अकेला ही रहेगा?”
“हांऽ!” उसने दृढ़ता से कहा।
"क्या खाएगा? किसके पास रहेगा?"
“रयाना सेठ की नउकरी करूंगा...।"
मां ज़ोर से हंस पड़ी, "क्या कहा, तू नउकरी करेगा? पगला !"
"तो मामा के घर चला जाऊंगा...!
मां और भी ज़ोर से हंस पड़ी थी।
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