कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
“तेरे भाग का शिकार रखा है, कटोरी में ! खाएगा नहीं?”
कांछा प्रत्युत्तर में कुछ बोल न पाया। डबडबाई आंखों से देखता रहा...
गुरंग इस बार पूरे नौ दिन रहा। कांछा ने देखा-गुरंग खुश है। दिन-रात मुंह फाड़े हंसता रहता है-बात-बिना बात। इस घर के हर काम में अपने घर की तरह दखल देने लगता है। मां भी प्रत्येक बात में उसकी राय लेती है। जो कुछ वह कहता है, वही होता है।
हमेशा गुमसुम-सी रहने वाली उदास मां में भी उसे बड़ा परिवर्तन लगता है। गुरंग जो नए कपड़े लाया था, उन्हें बड़े सलीके से पहनती है। बालों को चुपड़कर रखती है। माथे पर लाल पिट्ठयां लगाती है...
जब तक बाप था, मां ऐसे संवरकर कभी भी न रही। दोनों प्रायः एक-दूसरे से झगड़ते रहते। बाप को शुल्फई पीने की आदत थी, जिससे सूखकर जंग लगी काली कील-सा रह गया था। इसी बात को लेकर घर में आए दिन कुहराम मचा रहता।
“तुझे तेरे देवी चाचा अच्छे नहीं लगते?" मां ने एक बार पूछा तो उसने मात्र सिर हिला दिया था-आक्रोश में। इसके बाद फिर कोई प्रश्न पूछने का उसे साहस ही न हो पाया।
कार्तिक का महीना बीत रहा था। वृक्ष एकदम सूखे-सूखे लग रहे थे, एक भी पत्ता कहीं दीखता न था। चारों ओर वीरानी-ही-वीरानी, डरावनी उदासी का विकट साम्राज्य ! नदी, नालों के किनारों का पानी जमने लगा था। ठोस, पारदर्शी शीशे-से कांकरों पर पांव पड़ता तो कर् र् से टूटने-चटकने की आवाज़ होती। बच्चे बच-बचकर किनारे पर चलते। कहीं स्वच्छ जल से कोई बड़ा-सा, चौड़ी थाली-सा कांकर तोड़कर, धूप में बैठकर चूसने लगते-ठंड से ठिठुरते हुए।
रात को पाला इतना गहरा पड़ता कि सुबह सारी धरती हिम की तरह सफ़ेद लगती। जिन ठंडे स्थानों पर धूप न आ पाती, वहां दोपहर तक भी सफेदी छाई रहती।
कुहरा झुर रहा था। उगता ठंडा सूरज कहीं मोटे-मोटे बादलों के बीच ऐसा घिर गया था कि उसके अस्तित्व का ही आभास न हो पा रहा था।
तभी चीड़ के कच्चे किवाड़ खड़खड़ाने की आवाज़ सुनाई दी उसे। फटी हुई, चीकट काली गुड़िया लपेटे वह बाहर की ओर लपका। सांकल खोली ही थी कि सामने गुरंग खड़ा दिखाई दिया।
“अरे, कांछा, कैसा है तू...?" गुरंग ने उसे अपने दोनों बलिष्ठ हाथों से ऊपर उठाकर ज़ोर से चूम लिया था। परंतु गुरंग का यह लाड़ उसे रंचमात्र भी अच्छा नहीं लगा था। बिल्ली की जैसी छितरी मूंछे चुभी थीं। गाल पर लगा गीला निशान उसने उतरते ही, अपनी फटी आस्तीन से रगड़-रगड़कर पोंछ दिया था।
गोदी से उतरते ही वह झटपट दूर भाग खड़ा हुआ था।
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